शुरुआत
शुक्र है कि कहीं कुछ बात तो हुई थोड़ी सी सही मगर शुरुआत तो हुई लफ्ज़ भी सिकुड़ रहें थे जुबां पर आने से कोई गुफ़तगू अब कहीं आज़ाद तो हुई सूखे हुए दरख़्त और वीराने से इस शहर में खिलते हुए फूलों कि बरसात तो हुई सुबह का सर्द कोहरा और दिन कि झुलसती आंच शाम से होते हुए फिर कहीं रात तो हुई चोट भी खुरचते हुए दर्द में लिपटी थी मुझे जो परेशां करे वो हसरत बरबाद तो हुई रोज़मर्रा उसी ढर्रे पर ज़िन्दगी चलताऊ थी अब जाकर नई दुनिया की सौगात तो हुई पंख फैलाकर आस्मां को नापना आसान है दूर चमके तारों से अब ज़रा बात तो हुई राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'