Thursday, March 20, 2014

शुरुआत



शुक्र है कि कहीं कुछ बात तो हुई
थोड़ी सी सही मगर शुरुआत तो हुई

लफ्ज़  भी सिकुड़ रहें थे जुबां पर आने से
कोई गुफ़तगू अब कहीं आज़ाद तो हुई

सूखे हुए दरख़्त और वीराने से इस शहर में
खिलते हुए फूलों कि बरसात तो हुई

सुबह का सर्द कोहरा और दिन कि झुलसती आंच
शाम से होते हुए फिर कहीं रात तो हुई

चोट भी खुरचते हुए दर्द में लिपटी थी
मुझे जो परेशां करे वो हसरत बरबाद तो हुई

रोज़मर्रा उसी ढर्रे पर ज़िन्दगी चलताऊ थी
अब जाकर नई दुनिया की सौगात तो हुई

पंख फैलाकर आस्मां को नापना आसान है
दूर चमके तारों से अब ज़रा बात तो हुई

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...