खाली पन्ना
क्या लिखूं की समझ नहीं आता
सारे नगमें हमसे किनारे हो गए
फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि
ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए
मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था
खोला तो जैसे उजाले हो गए
उदासी भरी चहक है मेरे साथ
उसी के अब हम हवाले हो गए
सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की
पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए
ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं
ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए
खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ
वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए
दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ
खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
Bhai bhaluni cha gye thoko taali. . . .
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