खवाबों की भीड़ में वो महीन कांच का टुकड़ा
सोने भी नहीं देता और जागने भी नहीं देता
ढूंढ़ते रहा एक अदद सी रहगुज़र
उसकी तलाश में दिल जाने भी नहीं देता
याद तो एक बहते हुए वक़्त का इशारा है
जब याद तक पहुंचू तो वापस आने भी नहीं देता
कभी कभी अकेले बैठने में बड़ी कोफ़्त होती है
पर ये अकेलापन किसी को बुलाने भी नहीं देता
क्या बताऊँ किसी को अपनी लाचारी यहाँ
झूठ का कारोबार है जो सच दिखाने भी नहीं देता
मैं खुश रहने की कोशिश करूँ तो नज़र लगती है
इसलिए मेरा नसीब मुझे मुस्कुराने भी नहीं देता
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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