Thursday, June 26, 2025

खवाबों की भीड़ में वो महीन कांच का टुकड़ा


 









खवाबों की भीड़ में वो महीन कांच का टुकड़ा 

सोने भी नहीं देता और जागने भी नहीं देता 


ढूंढ़ते रहा एक अदद सी रहगुज़र

उसकी तलाश में दिल जाने भी नहीं देता 


याद तो एक बहते हुए वक़्त का इशारा है 

जब याद तक पहुंचू तो वापस आने भी नहीं देता 


कभी कभी अकेले बैठने में बड़ी कोफ़्त होती है 

पर ये अकेलापन किसी को बुलाने भी नहीं देता 


क्या बताऊँ किसी को अपनी लाचारी यहाँ 

झूठ का कारोबार है जो सच दिखाने भी नहीं देता 


मैं खुश रहने की कोशिश करूँ तो नज़र लगती है 

इसलिए मेरा नसीब मुझे मुस्कुराने भी नहीं देता 


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 




 

 

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