Tuesday, September 2, 2014

सिलसिला


राहों का क्या है गुज़रती रहेंगी
सवाल-ओ-ज़हन भी तो रुकता नहीं है

सितारों से छुपकर कहाँ जा रहा है
फलक का ये मौसम चला जा रहा है
तलाशा बहुत है कि मिलता नहीं है

ये खिलती सुबह का नज़ारा तो देखो
यूँ जीवन से नज़रें मिलकर तो देखो
कहीं पर कोई राज़ छुपता नहीं है

दीवारें भरी है दरारों से लेकिन
संभलना वहां पर तो फिर भी है मुमकिन
यूँ ज़र्रों का गिरना भी चुभता नहीं है

ये दुनिया तो कितने सवालों भरी है
मेरे सामने कितनी मुश्किल पड़ी है
ये क्या सिलसिला है कि रुकता नहीं है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
  

अच्छी बात आएगी...........



कुछ सांसों की मरम्मत भी काम आएगी
कुछ इसी तरह से ज़िन्दगी की शाम आएगी

फूला हुआ मुंह लेकर बड़े दूर खड़े हो
मुझसे लड़ने की बेचैनी तुम्हे मेरे पास लाएगी

कई यादें यूँ ही बरामदे पड़ी सो रही हैं
उनकी फितरत भी थोड़ी देर में जाग जाएगी

ज़ोर है बहुत कि कुछ सूखे हुए जज़्बात है
इंतज़ार करो कुछ पल कि अभी बरसात आएगी

दिल यूँ उचट रहा है कि सस्ती ज़िन्दगी नब्ज़
मरने पर ही बाज़ार में सही दाम पाएगी

बहुत सारी भाग दौड़ और आपा धापी के बाद कहीं
ये थकी रूह भी बड़ा आराम पाएगी

ख़यालात आजकल बासी है और अभी यहाँ धोखा है
फिर भी कभी किसी मोड़ पर अच्छी बात आएगी

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...