Friday, October 6, 2017

ज़हन





खुश कम रहें तो भी कलह नहीं होती
यूँ बेबात झगड़ने की कोई वजह नहीं होती

मेरी शाम कुछ बिखरते हुए पन्नों में सिमट गयी है
रात होने को है पर कहीं सुबह नहीं होती

बहुत कोशिशें की थी हालत से दर-ब-दर
बड़ी मुद्दत्तों  के बाद भी कोई  सुलह नहीं होती

छूटते हैं रिश्ते कई मतलबी मंसूबों के लिए
थाम सकूं उनको ऐसी गिरह नहीं होती

खानाबदोश हुआ साया जो वैसे ही गुमनाम था
उस से मेरी वजूद की कोई जिरह नहीं होती

हवा भी दोष देती हैं साँसों को इस तरह
की धड़कनो में जीने की वजह नहीं होती

सूखे हैं जज़्बात सब पानी हो चला है
आदमी की परछाई की कोई सतह नहीं होती

पीठ पर खंजर से वार करने वालों के लिए
दिल के किसी कोने में जगह नहीं होती

वो रोज़ मेरे लोगों के लिए परेशानी का सबब बनता है
दोस्तों की पहल कभी इस तरह नहीं होती

मेरे ज़हन में कई सवाल कौंध रहे हैं बेसबब
यूँ हालत से हारी हुई बाज़ी बेवजह नहीं होती


राजेश बलूनी ' प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...