Wednesday, October 21, 2020

बेपरवाह

 








बेपरवाह है मिज़ाज और दिल सुस्त हो गया

कौन है जो यहाँ पर पूरा दुरुस्त हो गया


अर्श से फिसलता एक ज़र्रा चाँद का

ज़मीं पर न जाने कहाँ खो गया


बगैर हाथ उठाए दुआएं मांगता हूँ

तहज़ीब और सलीका कहाँ छोड़ गया


जागने इंतज़ार में है के सुस्त आँखें

सोचते सोचते मैं फिर से सो गया


एक ठण्डी छाँव लम्हो को सजाती है

और एक धधकता पल मौत को हो गया


किश्ते हैं सांसों की जो बची है आस-पास

ज़िन्दगी को कबसे ये धोखा हो गया


हर जगह धूल का समंदर फैला है

साफ़ मौसम न जाने कहाँ खो गया


-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 


 


 


 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...