Monday, July 19, 2021

कुछ सहमे सहमे से आज हालात हैं ...

 









कुछ सहमे सहमे से आज हालात हैं 

जाने किस घड़ी के सारे लम्हात है 


टूट हुए लफ़्ज़ों से कहानी नहीं बनती 

बिखरे हुए सारे मेरे अल्फ़ाज़ हैं 


अभी तो परेशान होने का सफ़र शुरू हुआ 

मुसीबतों का ज़िंदगी मे अभी आगाज़ है 


सारी बातें सबके सामने बोल नहीं सकता 

मेरी आँखों मे जज़्ब कुछ अनकहे राज़ हैं 


किस सवेरे की बात करते हो जो सपनों मे है 

यहाँ तो हक़ीक़त मे काली घानेरी रात है


खुलकर कोई अपनी आपबीती नहीं कहता 

कुछ लोगों के सिमटते हुए जज़्बात हैं 


ऐसा कौन है जो तुमको मुँह लगाएगा 

तुम्हारा समय तो वैसे ही बर्बाद है 


शब्दों के बनिस्बत नज़रों का लिहाज़

कुछ इसी तरह से अपने अंदाज़ हैं 


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



  


मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...