अब रंज नहीं किसी मसले का
रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं
खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से
हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं
शब के दामन में एक चाँद का सिरा
चल चांदनी में सबको नहलाते हैं
बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो
हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं
लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता
गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं
चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है
हम घर की दीवारों को सजाते हैं
इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन
हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं
चोर कौन है जो घर का सामान ले गया
और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं
कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना
हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं
क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं
पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं
वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो
क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं
-राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब