Wednesday, August 27, 2025

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं 

पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं 


कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों 

सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं


मैं उनसे प्यार से बात भी करूँ तो 

फिर भी वो मुझे छलिया समझते हैं


अपनी पलकों में मैंने समंदर समेटे हैं

मगर वो अश्कों को दरिया समझते हैं


मैंने  ईमानदारी का हिसाब क्या माँगा

लोग तो मुझे ठेठ बनिया समझते हैं


मेरा  बदन अब पहले सा नाज़ुक नहीं 

लोग फिर भी नन्ही कलियाँ समझते हैं


चर्चा हुआ मेरा चौपालों और देश विदेश में 

पर वो चारदीवारी को ही दुनिया समझते हैं


छोड़ दिया वो रास्ता जहाँ जाना नहीं है 

पर लोग उसे मेरी गलियां समझते हैं


लज़ीज दावत उड़ाने का तुम्हे शौक होगा 

हम तो नमक -रोटी को बढ़िया समझते हैं


-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

Thursday, June 26, 2025

खवाबों की भीड़ में वो महीन कांच का टुकड़ा


 









खवाबों की भीड़ में वो महीन कांच का टुकड़ा 

सोने भी नहीं देता और जागने भी नहीं देता 


ढूंढ़ते रहा एक अदद सी रहगुज़र

उसकी तलाश में दिल जाने भी नहीं देता 


याद तो एक बहते हुए वक़्त का इशारा है 

जब याद तक पहुंचू तो वापस आने भी नहीं देता 


कभी कभी अकेले बैठने में बड़ी कोफ़्त होती है 

पर ये अकेलापन किसी को बुलाने भी नहीं देता 


क्या बताऊँ किसी को अपनी लाचारी यहाँ 

झूठ का कारोबार है जो सच दिखाने भी नहीं देता 


मैं खुश रहने की कोशिश करूँ तो नज़र लगती है 

इसलिए मेरा नसीब मुझे मुस्कुराने भी नहीं देता 


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 




 

 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...