Wednesday, August 27, 2025

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं 

पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं 


कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों 

सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं


मैं उनसे प्यार से बात भी करूँ तो 

फिर भी वो मुझे छलिया समझते हैं


अपनी पलकों में मैंने समंदर समेटे हैं

मगर वो अश्कों को दरिया समझते हैं


मैंने  ईमानदारी का हिसाब क्या माँगा

लोग तो मुझे ठेठ बनिया समझते हैं


मेरा  बदन अब पहले सा नाज़ुक नहीं 

लोग फिर भी नन्ही कलियाँ समझते हैं


चर्चा हुआ मेरा चौपालों और देश विदेश में 

पर वो चारदीवारी को ही दुनिया समझते हैं


छोड़ दिया वो रास्ता जहाँ जाना नहीं है 

पर लोग उसे मेरी गलियां समझते हैं


लज़ीज दावत उड़ाने का तुम्हे शौक होगा 

हम तो नमक -रोटी को बढ़िया समझते हैं


-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...