Posts

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

 अब रंज नहीं किसी मसले का  रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं  खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से  हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं  शब के दामन में एक चाँद का सिरा  चल चांदनी में सबको नहलाते हैं  बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो  हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं  लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता  गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं  चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है  हम घर की दीवारों को सजाते हैं  इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन  हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं  चोर कौन है जो घर का सामान ले गया  और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं  कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना  हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं  क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं  पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं  वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो  क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं  -राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब 

तू बेवक़ूफ़ है ......

  तू बेवक़ूफ़ है जो दूसरों से शिकायत करता है खुद की गलतियों पर थोड़ा काम कर   भरोसे कब तक रहेगा किसी के जब सभी मशगूल हैं तू अपने लक्ष्य साध कर बस काम कर   कोई नहीं आएगा तुझे जगाने यहाँ पर यार उनकी बला से तो तू ज़िन्दगी भर आराम कर   कहते हैं कि खुद पर विश्वास होना चाहिए इसीलिए लगन और हौसले का इंतज़ाम कर   जब तक तू कदम नहीं उठाएगा बढ़ेगा नहीं अपनी वजह से किसी को मत बदनाम कर   किसी के कहने पर तभी चल जब सही हो हमेशा अपनी सूझ बूझ और अक्ल से काम कर राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब   

कुछ सहमे सहमे से आज हालात हैं ...

Image
  कुछ सहमे सहमे से आज हालात हैं  जाने किस घड़ी के सारे लम्हात है  टूट हुए लफ़्ज़ों से कहानी नहीं बनती  बिखरे हुए सारे मेरे अल्फ़ाज़ हैं  अभी तो परेशान होने का सफ़र शुरू हुआ  मुसीबतों का ज़िंदगी मे अभी आगाज़ है  सारी बातें सबके सामने बोल नहीं सकता  मेरी आँखों मे जज़्ब कुछ अनकहे राज़ हैं  किस सवेरे की बात करते हो जो सपनों मे है  यहाँ तो हक़ीक़त मे काली घानेरी रात है खुलकर कोई अपनी आपबीती नहीं कहता  कुछ लोगों के सिमटते हुए जज़्बात हैं  ऐसा कौन है जो तुमको मुँह लगाएगा  तुम्हारा समय तो वैसे ही बर्बाद है  शब्दों के बनिस्बत नज़रों का लिहाज़ कुछ इसी तरह से अपने अंदाज़ हैं  राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'   

थमे तुम जिस जगह ....

Image
थमे तुम जिस जगह पर वहां भी रास्ता निकलता है  मगर तुम कदम आगे बढ़ा नहीं पाए    मैने तो ईंट पत्थर इकट्टा कर लिए थे  तुम ही मेरा घर बना नहीं पाए  क्या त्योहार , क्या खुशी, अब पता नहीं चलती  हम अपना आंगन दियों से सजा नहीं पाए  दर्द भी सीने में जज्ब कर रखे हैं  कोई कितना भी पूछे पर बता नहीं पाए बहुत कोशिश की लोगों ने भटकाने की  पर मुझे अपने इरादों से डिगा नहीं पाए जमाना मुझे कोसने गिराने के लिए खड़ा था  पर हिम्मत है कि वो गिरा नहीं पाए  रोज यहां पर जुल्म होता है बेधड़क  उस से लड़ने की हिम्मत हम दिखा नहीं पाए  रहने को तो कुत्ता भी आदमी के साथ रहता है  पर इंसान ही इंसान से दिल लगा नहीं पाए राजेश बलूनी प्रतिबिंब

बेपरवाह

Image
  बेपरवाह है मिज़ाज और दिल सुस्त हो गया कौन है जो यहाँ पर पूरा दुरुस्त हो गया अर्श से फिसलता एक ज़र्रा चाँद का ज़मीं पर न जाने कहाँ खो गया बगैर हाथ उठाए दुआएं मांगता हूँ तहज़ीब और सलीका कहाँ छोड़ गया जागने इंतज़ार में है के सुस्त आँखें सोचते सोचते मैं फिर से सो गया एक ठण्डी छाँव लम्हो को सजाती है और एक धधकता पल मौत को हो गया किश्ते हैं सांसों की जो बची है आस-पास ज़िन्दगी को कबसे ये धोखा हो गया हर जगह धूल का समंदर फैला है साफ़ मौसम न जाने कहाँ खो गया -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'       

ज़माने का ज़ोर है...

Image
ज़माने का ज़ोर है कि टूट जाऊं अपनी दहलीज पर ही रुक जाऊं तसल्ली नहीं होती उसे जब भी कुछ करूं उसका इरादा है कि झुक जाऊं पहले से ज़्यादा महीन हो चुका हूँ अब क्या चाहती हो, मिट जाऊं मेरे चेहरे पर शिकन अपना रुआब दिखाती है और तुम कहती हो कि मुस्कुराऊं अब कौन सा पैंतरा सोच रही हो तुम्हारा बस चले तो मैं फुक जाऊं बेवजह के शिकवे भी इसलिए हैं तुम चाहती हो तुमसे दूर जाऊं मेरे दर्द  से तुझे फर्क पड़े मैंने नहीं देखा बस तेरी उम्मीद पर खरा उतर जाऊं जब हमारा साज़ ही बेसुरा है तो तेरे सुर से सुर क्यों मिलाऊं थोड़ी इज्जत और प्यार की उम्मीद थी तेरे ऐसे करम है कि भूल जाऊं अब ज़िन्दगी को ऐसे झेल रहे हैं कि समझ नहीं आता क्या बताऊं - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तसल्ली

Image
मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'