ज़माने का ज़ोर है...
ज़माने का ज़ोर है कि टूट जाऊं
अपनी दहलीज पर ही रुक जाऊं
तसल्ली नहीं होती उसे जब भी कुछ करूं
उसका इरादा है कि झुक जाऊं
पहले से ज़्यादा महीन हो चुका हूँ
अब क्या चाहती हो, मिट जाऊं
मेरे चेहरे पर शिकन अपना रुआब दिखाती है
और तुम कहती हो कि मुस्कुराऊं
अब कौन सा पैंतरा सोच रही हो
तुम्हारा बस चले तो मैं फुक जाऊं
बेवजह के शिकवे भी इसलिए हैं
तुम चाहती हो तुमसे दूर जाऊं
मेरे दर्द से तुझे फर्क पड़े मैंने नहीं देखा
बस तेरी उम्मीद पर खरा उतर जाऊं
जब हमारा साज़ ही बेसुरा है
तो तेरे सुर से सुर क्यों मिलाऊं
थोड़ी इज्जत और प्यार की उम्मीद थी
तेरे ऐसे करम है कि भूल जाऊं
अब ज़िन्दगी को ऐसे झेल रहे हैं
कि समझ नहीं आता क्या बताऊं
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राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
Bhai Chot Gehri hai
ReplyDeletewaah waah very nice
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