जंजाल
पता नहीं कैसे ये लम्हा भी संभल रहा है
हर कदम पर देखो जैसे इस तरह बदल रहा है
ये हालात हैं ज़िन्दगी के या रास्तों की ठोकरें
कि हाथ कुछ आता नहीं और मंज़र निकल रहा है
रेंगती सी ज़िन्दगी है , कुछ नया नहीं हो रहा
जो भी है , जैसा भी है, वैसा ही अब चल रहा है
फलक पर उड़ने को तो उड़ ही जातें है मगर
ज़मीं पर रहने वाला अब तो कंकड़ बन रहा है
वक़्त से जीता हैं कौन ? हारे हैं इस से सब
देखो तो हर एक नज़र में हाथ से फिसल रहा है
फूल का ये एक बगीचा काँटों में बदल रहा है
सदियों से भी दिल को देखो, है यहीं मंडरा रहा
ख्वाहिशें तो मर चुकी है फिर भी ये उछल रहा है
गर्दिशों का साथ है और बंदिशों की फेहरिस्त भी
तभी तो ये मेरा चेहरा अंधेरों में जल रहा है
मैं कहीं भी हूँ मगर इतना मुझको है यकीं
कि दर्द का ये सख्त,मंज़र मुझमे कितना मिल रहा है
एक अधूरी बात है कि परेशानी भी ग़ज़ब है
साथ भी नहीं छोड़ती और लम्हा भी बिछड़ रहा है
ज़बरदस्ती की शिकायत, शिकवों का जंजाल है क्या?
यही है जो मेरे दिल में हर कहीं पर घुल रहा है
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
Comments
Post a Comment