Wednesday, October 15, 2014

कश्मीर का दर्द


यूँ भी दरकती हुई एक दीवार रह गई
घर की खिड़की में अब दरार रह गई

कुछ कांच के टुकड़े और पत्थरों का बुरादा
इकठ्ठा होकर रेतों का संसार बन गई

बिखरती हुई ज़िन्दगी और चीखती हुई आवाज़
कुछ कुछ मिलाकर गुमनाम पुकार बन गई

तबाही का एक सैलाब ले उड़ा पूरे शहर को
बचा कुछ नहीं बस शिव की चौपाल रह गई

तुझसे कौन लड़ सकता है कुदरत; हमें  नहीं पता
पर नाकाम तो यहाँ की राज्य सरकार रह गई

बेशर्म है स्थानीय प्रशासन जो खोखले दावे करता है
पर केंद्र का त्वरित मरहम जीवन का द्वार बन गई

मारते थे जिनको पत्थर अपना रकीब मानकर
वो भारत की वीर सेना आज तारणहार बन गई

कहाँ है वो देशद्रोही यासीन मालिक और गिलानी
चूड़ियाँ पहनकर बैठें हैं और घाटी यहाँ बरबाद रह गई

झेलते हैं आपदा को क्यों मगर दहशत को झेलें
क्यों अब कश्मीर की धरती बग़दाद बन गई

अमृत का पान पीने कई सियासत दान आये
घटिया मानसिकता से नदी भी विषधार बन गई

कश्मीर का अस्तित्व भारत के संगठन से फलता है
अलगाववादियों की ज़हरीली सोच फिर लाचार रह गई


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...