दर्द भी..........
दर्द भी गुज़रती रात का सिला देता है तमाम उम्र गु ज़ा रने की वजह देता है बेरुखी को हाथों से मल रहा है मौसम मुझे वो अंधेरे से मिला देता है हर लम्हा खर्च हो रहा है आजकल शाम का मुकद्दर मुझे जला देता है बड़े खूब थे मेरे यार हंसते थे मुझपे उनकी यादों का जमघट मुझे रुला देता है बिसरी बात को करूं याद तो भर आती हैं वक़्त पलकों से कुछ बूंदें गिरा देता है होश मे हूँ मगर एक लम्बी बेहोशी है जज़्बातों का सूनापन मुझे बता देता है नशे मे तो दुनिया है मैं कहाँ हूँ जाम भी छलक कर मुझे दगा देता है यूं पुरानी ख़राशें हैं मेरे दरम्यान जीने का सलीका भी सज़ा देता है इस शहर की बेरुखी भी तब समझ आई हर शख्स जब सामने से नज़रें फिरा लेता है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'