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रात बेशहर है

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तकल्लुफ नहीं है ज़हन मे कि बाकी उमर है बाद मे गौर करेंगे कि  कौन सा सफ़र है उजली धूप यहाँ पर काली हो गयी सूरज के अंदर भी अँधेरे का घर है तमाम हथकंडे अपनाए तन्हाई के आसपास मगर शोरगुल के मंज़र है उम्मीद लंगड़ी हो गयी कि  पैर तिठकने लगे मौत तो आती नहीं और ज़िंदगी बेअसर है निशान भी देखे कि सब मिट गये हैं बस रेत के बड़े बड़े रेगिस्तान नज़र है बिना मंज़िल के क़दमों को बढ़ाए जा रहे हैं पता नहीं कौन सा बेनाम ये सफर है दर्द के टुकड़ों पर मुस्कराहट की परत नहीं होती नैनों में बसता अब अश्कों का शहर है सुबह की हवाएँ कभी मायूस हो जाती है अपने ठिकाने पर नहीं रात अब बेशहर है                       -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'