Thursday, October 27, 2016

बदस्तूर




टूटे हुए धागे से अब कोई माला नहीं जोड़ता
बिगड़ने से पहले कोई क्यों नहीं सोचता

मैं तो यूँ ही जिया हूँ दोस्तों की खातिर
सर्द रात की फ़िक्र होती तो लिहाफ़ नहीं छोड़ता

बहुत लोग हैं जो अपनी बात से जल्दी मुकर जाते हैं
मेरी फ़ितरत है कि मैं वादा नहीं तोड़ता

सच का इस कदर मैं ग़ुलाम हो चुका हूँ
कि चाहने पर भी झूठ से रिश्ता नहीं जोड़ता

अब बदस्तूर रास्तों  की ख़ाकें छान  रहा हूँ
नहीं तो मैं दीवारों मे अपना सिर नहीं फोड़ता

बड़ा अजब है कि लोग यहाँ कौड़ियों के लिए कत्ल करते हैं
क्या उन्हे उनका ज़मीर नहीं कचोटता

मैं समंदर के किनारे समेट रहा हूँ पलकों मे
अब अश्कों को गिरने से मैं नहीं रोकता

- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...