ज़िंदगीनामा -२
बहुत से अंधेरों में चेहरा दिखा है यूँ रातों के चलने से पहरा बढ़ा है कोई तो मेरे घर में आए या जाए मैं सोचता हूँ ये यूँ ही गाहे - बगाहे मगर दिल के अंदर का दायरा घटा है ज़ुबानों से कितने ही हमले सहे हैं ये तरकश के तीरों के जितने बड़े हैं मगर हौसलों से ये जीवन अड़ा है कितनी दलीलें लिफाफे में बंद थी मुझे सिर्फ चुप्पी की दुनिया पसंद थी कहाँ से ये बातों का जमघट बढ़ा है धरती की शह थी या बादल था ज़िद्दी जहाँ पर मुझे गीली मिटटी मिली थी उसी से तो मेरा घरौंदा बना है ख्वाबों की रहमत भी खारिज हुई है मरने की जब से गुज़ारिश हुई है दर्द का बिस्तर लगा कर रखा है जहाँ तक मैं जाऊँ नज़र झुक रही है यूँ पलकों की छत में कहाँ चुप रही है समंदर है छोटा या पैमाना बड़ा है मायू