ज़िंदगीनामा -२
बहुत से अंधेरों में चेहरा दिखा है
यूँ रातों के चलने से पहरा बढ़ा है
कोई तो मेरे घर में आए या जाए
मैं सोचता हूँ ये यूँ ही गाहे -बगाहे
मगर दिल के अंदर का दायरा घटा है
ज़ुबानों से कितने ही हमले सहे हैं
ये तरकश के तीरों के जितने बड़े हैं
मगर हौसलों से ये जीवन अड़ा है
कितनी दलीलें लिफाफे में बंद थी
मुझे सिर्फ चुप्पी की दुनिया पसंद थी
कहाँ से ये बातों का जमघट बढ़ा है
धरती की शह थी या बादल था ज़िद्दी
जहाँ पर मुझे गीली मिटटी मिली थी
उसी से तो मेरा घरौंदा बना है
ख्वाबों की रहमत भी खारिज हुई है
मरने की जब से गुज़ारिश हुई है
दर्द का बिस्तर लगा कर रखा है
जहाँ तक मैं जाऊँ नज़र झुक रही है
यूँ पलकों की छत में कहाँ चुप रही है
समंदर है छोटा या पैमाना बड़ा है
मायूसी नहीं है ये तो किस्मत बनी है
ये रतिया अँधेरी वहीँ की वहीँ है
नींदों से ऐसे रिश्ता घटा है
कागज़ के टुकड़ों में सिमटा हुआ हूँ
धूलों की चादर में लिपटा हुआ हूँ
मेरा अक्स जैसे की खो सा गया है
इधर आंसुओं से ये दरिया बहेगा
उधर यादों के घर में सहरा बंधेगा
ये सौदा तो लगता बड़ा ही खरा है
कई दिन बिताये खड़े हैं शहर में
मगर छुप रहे हैं सवालों के घर में
ये कैसा है मंज़र जो मुझको दिखा है
ये ग़ुरबत का फैला हुआ क्या असर है
यूँ गर्दिश में रहना सहा सा हुआ है
शहरों में मातम सा पसरा हुआ है
बारिश की धरती कि गन्दा बिछौना
कहाँ पर निकलता है मिटटी से सोना
उसी पर तो सारा मुक्कद्दर लगा है
नहीं तो नहीं है, मगर हाँ कहाँ है
मेरे लैब तो चुप है, फिसलती ज़ुबाँ है
ये
कैसा है संगम किधर से बना है
उतरती नहीं है ये पलकों की रंजिश
लगा जो रखी है ये अश्कों की बंदिश
इन्ही से तो आगे को होता बुरा है
बहुत थक गया हूँ पलों को ही गिनते
अगर रह भी जाते समय से संभलते
नहीं फिर कहीं कोई दुखड़ा पड़ा है
अश्कों के बहने से भी तिश्नगी है
ज़िंदा है यादें यही ज़िन्दगी है
इसी ने तो हमको सहारा दिया है
ये चिट्ठी नहीं हैं , ये अक्षर की दुनिया
ये प्रेमों के निर्झर, ये काँटों की बतिया
ये जीवन जला है या बुझता गया है
राजेश बलूनी 'प्रतिबम्ब'
उतरती नहीं है ये पलकों की रंजिश
लगा जो रखी है ये अश्कों की बंदिश
इन्ही से तो आगे को होता बुरा है
बहुत थक गया हूँ पलों को ही गिनते
अगर रह भी जाते समय से संभलते
नहीं फिर कहीं कोई दुखड़ा पड़ा है
अश्कों के बहने से भी तिश्नगी है
ज़िंदा है यादें यही ज़िन्दगी है
इसी ने तो हमको सहारा दिया है
ये चिट्ठी नहीं हैं , ये अक्षर की दुनिया
ये प्रेमों के निर्झर, ये काँटों की बतिया
ये जीवन जला है या बुझता गया है
राजेश बलूनी 'प्रतिबम्ब'
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