याद भी तेरे....
याद भी तेरे सिरहाने से क़ुछ यूं चली जाती है के नींद के झरोखों मे एक ज़िंदगी सिमट जाती है मेरे साथ आने से हवाओं को ऐसा रश्क हुआ के मौसम के मिज़ाज मे कुछ तब्दीली आ जाती है बड़ी बेसब्र है पलटते हुए पन्नों की कहानी मेरे लम्हों से वो मेरी दास्तान सुनाती है ज़मीर कहाँ खो गया की ढूंढने मे मशक्कत है धूप के शहर मे छाँव कहाँ सो जाती है खर्च हो रहें हैं वजूद भी सरपरस्ती मे तुम्हारी मेरे राम की जगह केवल तिरपाल मे समाती है ग़नीमत है कि अभी तक मरम्मत का दौर नहीं आया मेरी कथा अब कत्लखानो मे सुनाई जाती है कई मसलों पर लोगों के खयालात ज़ब्त हो चुके हैं उनकी खामोशी उम्मीदों की लाश को जलाती है गुज़रते वक़्त के साथ तुम भी मसरूफ हो जाओगे घर मे और पायदान पर आने जाने के निशां अभी बाकी है एक टुकड़ा रात का चख रखा था मैने कभी पर सुबह ना जाने क्यूं बेस्वाद नज़र आती है खबरदार हुआ अपने अतीत के फैसलों से कभी तो कल की सोच से मेरे मेरी लकीरे सम्भल ज़ाती है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'