Skip to main content

याद भी तेरे....


याद भी तेरे सिरहाने से क़ुछ यूं चली जाती है
के नींद के झरोखों मे एक ज़िंदगी सिमट जाती है 

मेरे साथ आने से हवाओं को ऐसा रश्क हुआ
के मौसम के मिज़ाज मे कुछ तब्दीली आ जाती है 

बड़ी बेसब्र है पलटते हुए पन्नों की कहानी
मेरे लम्हों से वो मेरी दास्तान सुनाती है 

ज़मीर कहाँ खो गया की ढूंढने मे मशक्कत है
धूप के शहर मे छाँव कहाँ सो जाती है 

खर्च हो रहें हैं वजूद भी सरपरस्ती मे तुम्हारी
मेरे राम की जगह केवल तिरपाल मे समाती है  

ग़नीमत है कि अभी तक मरम्मत का दौर नहीं आया
मेरी कथा अब कत्लखानो मे सुनाई जाती है 

कई मसलों पर लोगों के खयालात ज़ब्त हो चुके हैं
उनकी खामोशी उम्मीदों की लाश को जलाती है 

गुज़रते वक़्त के साथ तुम भी मसरूफ हो जाओगे घर मे
और पायदान पर आने जाने के निशां अभी बाकी है

एक टुकड़ा रात का चख रखा था मैने कभी
पर सुबह ना जाने क्यूं बेस्वाद नज़र आती है 

खबरदार हुआ अपने अतीत के फैसलों से कभी तो
कल की सोच से मेरे मेरी लकीरे सम्भल ज़ाती है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Comments

Popular posts from this blog

खाली पन्ना

क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तसल्ली

मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

 अब रंज नहीं किसी मसले का  रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं  खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से  हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं  शब के दामन में एक चाँद का सिरा  चल चांदनी में सबको नहलाते हैं  बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो  हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं  लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता  गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं  चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है  हम घर की दीवारों को सजाते हैं  इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन  हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं  चोर कौन है जो घर का सामान ले गया  और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं  कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना  हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं  क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं  पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं  वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो  क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं  -राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब