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बेपरवाह

  बेपरवाह है मिज़ाज और दिल सुस्त हो गया कौन है जो यहाँ पर पूरा दुरुस्त हो गया अर्श से फिसलता एक ज़र्रा चाँद का ज़मीं पर न जाने कहाँ खो गया बगैर हाथ उठाए दुआएं मांगता हूँ तहज़ीब और सलीका कहाँ छोड़ गया जागने इंतज़ार में है के सुस्त आँखें सोचते सोचते मैं फिर से सो गया एक ठण्डी छाँव लम्हो को सजाती है और एक धधकता पल मौत को हो गया किश्ते हैं सांसों की जो बची है आस-पास ज़िन्दगी को कबसे ये धोखा हो गया हर जगह धूल का समंदर फैला है साफ़ मौसम न जाने कहाँ खो गया -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'       

ज़माने का ज़ोर है...

ज़माने का ज़ोर है कि टूट जाऊं अपनी दहलीज पर ही रुक जाऊं तसल्ली नहीं होती उसे जब भी कुछ करूं उसका इरादा है कि झुक जाऊं पहले से ज़्यादा महीन हो चुका हूँ अब क्या चाहती हो, मिट जाऊं मेरे चेहरे पर शिकन अपना रुआब दिखाती है और तुम कहती हो कि मुस्कुराऊं अब कौन सा पैंतरा सोच रही हो तुम्हारा बस चले तो मैं फुक जाऊं बेवजह के शिकवे भी इसलिए हैं तुम चाहती हो तुमसे दूर जाऊं मेरे दर्द  से तुझे फर्क पड़े मैंने नहीं देखा बस तेरी उम्मीद पर खरा उतर जाऊं जब हमारा साज़ ही बेसुरा है तो तेरे सुर से सुर क्यों मिलाऊं थोड़ी इज्जत और प्यार की उम्मीद थी तेरे ऐसे करम है कि भूल जाऊं अब ज़िन्दगी को ऐसे झेल रहे हैं कि समझ नहीं आता क्या बताऊं - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'