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हे हिमालय ........


हे हिमालय इस धरा तुम सा प्रहरी कौन है
तुम हो स्थिर देख सब कुछ हम समझते मौन हैं
आज ये परिदृश्य है कि तुम यूँ क्रोधित हो गए
नीर नयनों से बहाकर हमको विचलित कर गए
मूढ़ता है कि मानव तुम सरीखा बन रहा
थोथली विकासधारा को ये तुम पर थोपता

आओ मानव तुम निस्संदेह हो बड़े महान लेकिन
गर रहोगे तुम अनैतिक , लुप्त होंगे सबके चिन्ह
तुमको फुर्सत मिल नहीं रही राजसत्ता के भंवर में
भूल कर दायित्व अपने चल पड़े अपने सफ़र में
धारा अवगत है तुम्हरी नीचता प्रमाण से
देखो अब तुम रो रहे हो अपनों के अवसान से

तुम अगर जो अपनी आकांक्षा की परिधि तोड़ते ना
यूँ ना अपने सिर को गंगा के तटों पर फोड़ते ना
ये तो ईश्वर जानता है संसृति की दुःख  राग बेला
आज देखो साथ में सब , कल रहेगा हर अकेला
आ गया है अब समय भी रोक कर अपनी ये हठ तुम
यूँ न पूरे वन भूषण को मत करो अम्बर में गुम

वाह! मेरी सरकार देखो क्या परीक्षण करके आई
गोल चक्कर पृथ्वी का देख ऊपर लौट आयी
कह रहे हैं चिन्तितों से हम तुम्हारे साथ है
दो घडी घडियाली आंसू रोने में भी कोई बात है
मेरे पी एम कह रहे मैं कुछ करोड़ों दे रहा
बदले में बस अपने हिस्से कुछ मतों (वोटों) को ले रहा

हे मेरे दलगत सिपाही तुम क्यों इसमें चुप रहे
इस तरह यूँ मुद्दों को आसानी से नहीं छोड़ते
मेरा तुमसे है निवेदन इसमें जितनी हो क्षति
तुम मगर इस त्रासदी में ढूंढ लेना राजनीति
फिर तुम्हारे मत तो क्या तुम सत्ता के काबिल बनोगे
फर्क होगा क्या अगर जो नीति को बोझिल करोगे

जब नए प्रचंड बहुमत में नयी सरकार आई
फेहरिस्त है वादों की जो घर के कोने छोड़ आई
है मलिन यमुना तो क्या है ,जेब तो निर्मल है भाई
क्या हुआ जो गंगा के तट बाढ आई ,बाढ़ आई
शोर क्यों है कर रहे सब, पांच सालों का सफ़र है
अभी तो  कुछ माह बीते, क्यों नहीं सब को सब्र है
इनको सब आराम दो कि इनको दुनिया की फ़िक्र है

क्या कहें अब आधुनिकता के इस नए संसार में
स्वार्थपरता बढ रही है ,मानवता है हार में
द्वेष तो जैसे कि हर एक आदमी से जुड़ गया
आज हर एक प्राणी देखो कर्तव्यों से मुड़ गया
क्या है धोखा ,क्या है दंगल सब समझ में आ गया
चक्रव्यूह है ज़िन्दगी का सबको ये उलझा गया

आ गया अब समय जब क्रोध हो अन्याय से
जीने की अब शर्त है कि जीना है अब न्याय से
छोड़कर दुश्मार्ग झूठा, सत्य का स्वागत करो
कायरों सी जीव लीला अब नहीं, हिम्मत भरो
यहीं पर फिर भारतीयता का एक नया निर्माण होगा
देखो फिर तुम धर्म में जब हर किसी का ध्यान होगा
तभी तो हर एक ह्रदय में प्रेम वर्षित ज्ञान होगा


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '




 




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खाली पन्ना

क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तसल्ली

मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

 अब रंज नहीं किसी मसले का  रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं  खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से  हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं  शब के दामन में एक चाँद का सिरा  चल चांदनी में सबको नहलाते हैं  बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो  हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं  लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता  गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं  चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है  हम घर की दीवारों को सजाते हैं  इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन  हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं  चोर कौन है जो घर का सामान ले गया  और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं  कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना  हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं  क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं  पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं  वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो  क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं  -राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब