Saturday, June 29, 2013

यूँ भी तो कभी.........


यूँ भी तो कभी रंग उड़ जाएँ ये सोचता हूँ
अपने पलटते ख्वाबों को यूँ ही मोड़ता हूँ

चहलकदमी भरी है गलियों के बरामदे मे
और खिड़कियों को भी करीने से खोलता हूँ

मेरी लिखावट से एक दरिया चेहरों पर बह गया
इसीलिए अपनी बेरहम कलम को तोड़ता हूँ

इन यादों की मियाद कब तक रहेगी नहीं जानता
फिर भी दिन ब दिन इन्ही के बारे मे सोचता हूँ

अभी अभी ताज़ा ज़ख़्म है कहीं सूख ना जाए
इसे ज़िदा रखने के लिए रोज़ ही खरोचता हूँ

बिना स्याही से लिखी है इस तरह अपनी दास्तान
कि काग़ज़ के टुकड़ों को भी पढ़ने के लिए जोड़ता हूँ

बह रहे हैं तो बहने दो आख़िर इनका मौसम जो है
मैं आजकल नज़रों से बहता सैलाब नहीं पोंछता हूँ

मेरे लिए ज़िंदगी ने कई रास्तों पर सुराख किए हैं
फिर भी मैं कभी अपनी हिम्मत नहीं छोड़ता हूँ

कितनी दीवारों के दरम्यान कई शीशों की दरार हैं
उन्ही मे मैं अपना चेहरा देखकर बोलता हूँ

लगे हाथ कुछ कामयाबी मिली है तो सिर पर चढ़ ना जाए
इसी डर से कभी कभी अपना सिर भी फोड़ता हूँ

यूँ ना रात की आवारगी जीने देगी मुझे अब कहीं
इसीलिए दिन मे ही सोने के लिए चादर ओढ़ता हूँ


राजेश बलूनी'प्रतिबिम्ब'

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