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यूँ भी तो कभी.........


यूँ भी तो कभी रंग उड़ जाएँ ये सोचता हूँ
अपने पलटते ख्वाबों को यूँ ही मोड़ता हूँ

चहलकदमी भरी है गलियों के बरामदे मे
और खिड़कियों को भी करीने से खोलता हूँ

मेरी लिखावट से एक दरिया चेहरों पर बह गया
इसीलिए अपनी बेरहम कलम को तोड़ता हूँ

इन यादों की मियाद कब तक रहेगी नहीं जानता
फिर भी दिन ब दिन इन्ही के बारे मे सोचता हूँ

अभी अभी ताज़ा ज़ख़्म है कहीं सूख ना जाए
इसे ज़िदा रखने के लिए रोज़ ही खरोचता हूँ

बिना स्याही से लिखी है इस तरह अपनी दास्तान
कि काग़ज़ के टुकड़ों को भी पढ़ने के लिए जोड़ता हूँ

बह रहे हैं तो बहने दो आख़िर इनका मौसम जो है
मैं आजकल नज़रों से बहता सैलाब नहीं पोंछता हूँ

मेरे लिए ज़िंदगी ने कई रास्तों पर सुराख किए हैं
फिर भी मैं कभी अपनी हिम्मत नहीं छोड़ता हूँ

कितनी दीवारों के दरम्यान कई शीशों की दरार हैं
उन्ही मे मैं अपना चेहरा देखकर बोलता हूँ

लगे हाथ कुछ कामयाबी मिली है तो सिर पर चढ़ ना जाए
इसी डर से कभी कभी अपना सिर भी फोड़ता हूँ

यूँ ना रात की आवारगी जीने देगी मुझे अब कहीं
इसीलिए दिन मे ही सोने के लिए चादर ओढ़ता हूँ


राजेश बलूनी'प्रतिबिम्ब'

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खाली पन्ना

क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तसल्ली

मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

 अब रंज नहीं किसी मसले का  रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं  खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से  हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं  शब के दामन में एक चाँद का सिरा  चल चांदनी में सबको नहलाते हैं  बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो  हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं  लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता  गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं  चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है  हम घर की दीवारों को सजाते हैं  इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन  हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं  चोर कौन है जो घर का सामान ले गया  और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं  कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना  हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं  क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं  पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं  वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो  क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं  -राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब