Thursday, October 10, 2013

जनतंत्र



मेरा ज़हन भी तराशता है सुलगते मंज़रों को
कि राह भी मिलती नहीं और घटी सी रंगत है

इस तरह हालात भी हो गए बदतर यहाँ
खून है पानी बना और हो गया शहर धुआं
ऐसे ही हर आदमी की हो रही फजीहत है

कौन है जो सरज़मीं पर नफरतों को बो रहा
कौन है जो मौत से ज़िन्दगी भिगो रहा
इस तरह क्यों आजकल डर रही इंसानियत है

मज़हबों की है नहीं ये सियासत की ढाल है
कि लोग मरते जा रहे और चुप पड़ी सरकार है
निम्नस्तर सोच है और प्राणघातक नीयत है

आजकल तो  मानवता के भाव ही स्थिर अचल है
रो रही सारी दिशाएं और चिंता का संबल है
दिवास्वप्न है नहीं ये दर्दनाक हकीकत है

अंसुवन को पोंछने आये है नेता
इन्हें तो बस मतदान की रहती है चिंता
सहानुभूति तो राजनीती से प्रेरित है

खून के छींटें संभालो बहा रहे जो आजकल
व्यवस्था प्रशासनिक भी हो रही देखो विफल
इस तरह लचरता पर पूरी पूरी लानत है

सह रहें है भ्रष्ट तंत्रों की ये बढती महिमा को
ध्वनि भी कोई नहीं जो बचा ले इस गरिमा को
श्रृगालों  की है ये नगरी उनकी ही हुकूमत है

अब नहीं जियंगे हम कीड़ों सा निकृष्ट जीवन
या तो हमको मार दो तुम, या तो कर दो अपना अंत
नहीं तो अब तुम सताओ अगर तुम में हिम्मत है

नई है जीवन की धारा ,नया अब जनतंत्र है
जग रहा है अब युवा भी सोच अब स्वतंत्र  है
भारत के नवनिर्माण में अब हर कोई सशक्त है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

No comments:

Post a Comment

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...