Wednesday, September 18, 2013

आवाजें दुरुस्त हैं............


आवाजें दुरुस्त हैं मगर चेहरे खामोश हैं
कितने पहर बीत गए और आगे कितने रोज़ हैं

आँखे खुली रखने में भी कोई फायदा नहीं है
यहाँ पर हर एक शख्स रहता बेहोश है

कुछ मरम्मत होगी पलों के दरम्यान कभी
आजकल मेरी ज़िन्दगी की यही सोच है

एक तबका नहीं है ज़िम्मेदार सभी के इशारे हैं
अरे यहाँ पर तो सभी लोगों का दोष है

आहिस्ता से शामिल हुआ अनकहे सवालों में
और जवाब तलाशने  में सबका जोर है

खुद क्या करेंगे ये तो ठंडे बस्ते में डाल दिया
मगर दूसरों की ताका-झांकी में सबको संतोष है

कोई तारीफ़ ना करे तो इतना चल जाता है
मगर कोई नज़रों से से गिराए तो ज़िन्दगी बोझ है

डाकिया ला रहा है चिट्ठियां बहुत दूर से
पर दिल से लिखे संदेशों की अभी भी खोज है

गिरने दो अगर नैतिकता गिरती है , क्या कर सकते हैं
इतने नीच हो चुके हैं की रहता नहीं होश है

धुंए भी शहर में हवा सा फैलते हैं आजकल
शायद चीखते हुए लोगों की मौत का ये शोर है

जो कोई एक हाथ उठता भी है तो दबा दिया जाता है
लोगों की सोच भी अब हो चुकी कमज़ोर है

शराब की एक महफ़िल और बिखरते अनाथ बच्चे
वाह ! मेरे शहर की ये तस्वीर बड़ी बेजोड़ है

लिखूंगा और लिखता रहूँगा जब तक रक्त झनझना न उठे
मेरा इशारा किसी अच्छी सोच की ओर है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'





 

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