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कब रहता है होश कि.....
















कब रहता  है होश कि ज़िंदगी यूँ ही निकल गई
देखते ही देखते वक़्त की सुइंयाँ फिसल गई

मैं चला हूँ बदस्तूर कि अभी शाम का बसेरा है
थोड़ी दूर चलने पर रात भी ढल गई

अंजान हूँ कि क्या होगा मेरा मुस्तकबिल ऐ दोस्त
ये तो बस कल की बात थी और ज़िंदगी निकल गई

ये भरम था कि मेरी रहगुज़र उसके ठिकाने पर है
मगर उसकी फ़ितरत भी ज़माने के साथ बदल गई

कौन है मोहसिन मेरा अब जानकर क्या करूँ
जब तन्हाई मे मेरी पूरी ज़िंदगी सिमट गई

तआरुफ़ क्या है मेरी हिम्मत का, ये अगर नहीं पता
देखो आँधियों से भी मेरी  ज़िन्दगी सम्भल गई

अब बात बनाने से फायदा नज़र नहीं आता
दुनिया की नज़र अब कारोबार समझ गई

हसरतों का ढेर तो दिल के अंदर कबसे जमा है
बीते दिनों की याद में उनकी चिता भी जल गई

मैं सोचता हूँ कि क्यों आजकल हर रिश्ते खफा है
क्या सबके वजूद की इमारत बिखर गई

बड़े शौक से ईमानदारी के लतीफे सुनते थे
अब उनकी तबीयत भी सब्ज़बाग से बिगड़ गई

तुम्हे क्यों रश्क हुआ जो मैं खुद से खुश हूँ
मुझे देखकर तुम्हारी त्योरियां क्यों चढ़ गई

बदला हुआ ज़माना तो अब हाथ मिलाने का है यारों
दिल मिलाने की तारीखें तो निकल गई

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

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खाली पन्ना

क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तसल्ली

मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

 अब रंज नहीं किसी मसले का  रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं  खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से  हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं  शब के दामन में एक चाँद का सिरा  चल चांदनी में सबको नहलाते हैं  बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो  हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं  लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता  गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं  चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है  हम घर की दीवारों को सजाते हैं  इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन  हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं  चोर कौन है जो घर का सामान ले गया  और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं  कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना  हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं  क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं  पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं  वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो  क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं  -राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब