कब रहता है होश कि ज़िंदगी यूँ ही निकल गई
देखते ही देखते वक़्त की सुइंयाँ फिसल गई
मैं चला हूँ बदस्तूर कि अभी शाम का बसेरा है
थोड़ी दूर चलने पर रात भी ढल गई
अंजान हूँ कि क्या होगा मेरा मुस्तकबिल ऐ दोस्त
ये तो बस कल की बात थी और ज़िंदगी निकल गई
ये भरम था कि मेरी रहगुज़र उसके ठिकाने पर है
मगर उसकी फ़ितरत भी ज़माने के साथ बदल गई
कौन है मोहसिन मेरा अब जानकर क्या करूँ
जब तन्हाई मे मेरी पूरी ज़िंदगी सिमट गई
तआरुफ़ क्या है मेरी हिम्मत का, ये अगर नहीं पता
देखो आँधियों से भी मेरी ज़िन्दगी सम्भल गई
अब बात बनाने से फायदा नज़र नहीं आता
दुनिया की नज़र अब कारोबार समझ गई
हसरतों का ढेर तो दिल के अंदर कबसे जमा है
बीते दिनों की याद में उनकी चिता भी जल गई
मैं सोचता हूँ कि क्यों आजकल हर रिश्ते खफा है
क्या सबके वजूद की इमारत बिखर गई
बड़े शौक से ईमानदारी के लतीफे सुनते थे
अब उनकी तबीयत भी सब्ज़बाग से बिगड़ गई
तुम्हे क्यों रश्क हुआ जो मैं खुद से खुश हूँ
मुझे देखकर तुम्हारी त्योरियां क्यों चढ़ गई
बदला हुआ ज़माना तो अब हाथ मिलाने का है यारों
दिल मिलाने की तारीखें तो निकल गई
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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