बेस्वाद...
गिरे गलियों मे खून के छींटे
और कटें है दरखतों में बगीचे
आवाज़ें नहीं ये दर्द के फव्वारे हैं
या बन गयी हैं मुकम्मल चीख़ें
मेरा तो मकान तेरे घर के सामने था
पर दिलों की गर्द है कि सरहदें खीचें
बीते वक़्त का लौटना आख़िर क्यों नहीं होता
रोज़ यही सोचकर माथे को पीटें
कल बड़ी शिद्दत से हमसे हाथ मिलाया
आज थोड़ी सी तरक़्क़ी से बदल गये तरीके
मेरे सामने चेहरे पर मुस्कुराहट रहती है
पीछे से तब्बस्सुम को गुस्से से भींचे
खवाब बड़ा देखा आसमान बनाने का
पंख कतरने पर आ गये हैं नीचे
जितनी तेज़ चला मैं गुनाहों की राह मे
उतना ही ज़िंदगी रह गई पीछे
क्यों बेस्वाद सा ये ज़िंदगी का सफ़र है
क्यों हर लम्हे लग रहे हैं फीके
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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