चीथड़े.......
जलते चराग़ भी देखे कि बुझ गए
चलते -चलते ना जाने कदम क्यों रुक गए
कई राजा रंक बने और कई रंक राजा
इस वक़्त की मेहरबानी से सब बदल गए
रसूख वाली शख्सियत भी धूल हो गयी
चमचमाते महल भी राख मे ढल गए
पसीने की हर एक बूँद का हिसाब लगेगा
और खून के सभी छींटो से जिस्म सिहर गए
कलह की स्रोतवाहिनी दिमाग़ की उपज है
मगर प्रेम भाव बस चेहरों तक सिमट गए
काँपते हाथों से सहारा दिया ग़रीब को
और अमीर के सामने झुक कर लिपट गए
क्या हुआ कि मानसिकता भी निम्न स्तर की हो चली है
मानवता के मानक भी कालाबाज़ारी मे गिर गए
लाख कोशिश की ज़मीर को संभालने की
मगर खनखनाते सिक्कों के आगे इसके उसूल भी बिक गए
अब चीथड़ो मे गूँथी हुई है जीवन की कहानी
पढ़ने से पहले ही ज़िंदगी के पन्ने फट गए
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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