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Showing posts from 2014

आईना

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निकल गए हैं ठोकरें खाकर,कोई ठिकाना चाहिए दो पल बिता लूँ कुछ पहर,एक आशियाना चाहिए यूँ सांस का चलना भी दूभर हो गया है ज़िन्दगी जीने का अब कोई बहाना चाहिए मेरे रुख में किसी तरह की परेशानी आये ना आये मगर इस चर्चा में लोगों को आना चाहिए कई मसले हैं जो बड़े पेचीदा हो रहे हैं उनसे निपटने को कोई सयाना चाहिए यूँ ही बदस्तूर जारी रहेगा मुश्किलों से सामना उनसे लड़ने का जज़्बा साथ आना चाहिए बड़े शहर में लोगों के दिल बहुत छोटे हैं उन्हें अपनी अक्ल का दायरा बढ़ाना चाहिए बुझे मन से हर कोई रिश्ते निभाता है यहाँ सभी को दिल से रिश्ता निभाना चाहिए कहाँ ढूँढूँ कि घर में अब नमक का बर्तन नहीं है मेरे अश्कों से दो चार बूंदों का किराना चाहिए यूँ बड़ी मीठी बोली बोलते हो ज़ुबान से दिल के अंदर भी मिश्री को मिलाना चाहिए मैं देखता हूँ अच्छा, बुरा हर किसी में झाँककर मुझे भी अपने लिए एक आईना चाहिए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'   

कश्मीर का दर्द

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यूँ भी दरकती हुई एक दीवार रह गई घर की खिड़की में अब दरार रह गई कुछ कांच के टुकड़े और पत्थरों का बुरादा इकठ्ठा होकर रेतों का संसार बन गई बिखरती हुई ज़िन्दगी और चीखती हुई आवाज़ कुछ कुछ मिलाकर गुमनाम पुकार बन गई तबाही का एक सैलाब ले उड़ा पूरे शहर को बचा कुछ नहीं बस शिव की चौपाल रह गई तुझसे कौन लड़ सकता है कुदरत; हमें  नहीं पता पर नाकाम तो यहाँ की राज्य सरकार रह गई बेशर्म है स्थानीय प्रशासन जो खोखले दावे करता है पर केंद्र का त्वरित मरहम जीवन का द्वार बन गई मारते थे जिनको पत्थर अपना रकीब मानकर वो भारत की वीर सेना आज तारणहार बन गई कहाँ है वो देशद्रोही यासीन मालिक और गिलानी चूड़ियाँ पहनकर बैठें हैं और घाटी यहाँ बरबाद रह गई झेलते हैं आपदा को क्यों मगर दहशत को झेलें क्यों अब कश्मीर की धरती बग़दाद बन गई अमृत का पान पीने कई सियासत दान आये घटिया मानसिकता से नदी भी विषधार बन गई कश्मीर का अस्तित्व भारत के संगठन से फलता है अलगाववादियों की ज़हरीली सोच फिर लाचार रह गई राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

सिलसिला

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राहों का क्या है गुज़रती रहेंगी सवाल-ओ-ज़हन भी तो रुकता नहीं है सितारों से छुपकर कहाँ जा रहा है फलक का ये मौसम चला जा रहा है तलाशा बहुत है कि मिलता नहीं है ये खिलती सुबह का नज़ारा तो देखो यूँ जीवन से नज़रें मिलकर तो देखो कहीं पर कोई राज़ छुपता नहीं है दीवारें भरी है दरारों से लेकिन संभलना वहां पर तो फिर भी है मुमकिन यूँ ज़र्रों का गिरना भी चुभता नहीं है ये दुनिया तो कितने सवालों भरी है मेरे सामने कितनी मुश्किल पड़ी है ये क्या सिलसिला है कि रुकता नहीं है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'   

अच्छी बात आएगी...........

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कुछ सांसों की मरम्मत भी काम आएगी कुछ इसी तरह से ज़िन्दगी की शाम आएगी फूला हुआ मुंह लेकर बड़े दूर खड़े हो मुझसे लड़ने की बेचैनी तुम्हे मेरे पास लाएगी कई यादें यूँ ही बरामदे पड़ी सो रही हैं उनकी फितरत भी थोड़ी देर में जाग जाएगी ज़ोर है बहुत कि कुछ सूखे हुए जज़्बात है इंतज़ार करो कुछ पल कि अभी बरसात आएगी दिल यूँ उचट रहा है कि सस्ती ज़िन्दगी नब्ज़ मरने पर ही बाज़ार में सही दाम पाएगी बहुत सारी भाग दौड़ और आपा धापी के बाद कहीं ये थकी रूह भी बड़ा आराम पाएगी ख़यालात आजकल बासी है और अभी यहाँ धोखा है फिर भी कभी किसी मोड़ पर अच्छी बात आएगी राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

शुरुआत

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शुक्र है कि कहीं कुछ बात तो हुई थोड़ी सी सही मगर शुरुआत तो हुई लफ्ज़  भी सिकुड़ रहें थे जुबां पर आने से कोई गुफ़तगू अब कहीं आज़ाद तो हुई सूखे हुए दरख़्त और वीराने से इस शहर में खिलते हुए फूलों कि बरसात तो हुई सुबह का सर्द कोहरा और दिन कि झुलसती आंच शाम से होते हुए फिर कहीं रात तो हुई चोट भी खुरचते हुए दर्द में लिपटी थी मुझे जो परेशां करे वो हसरत बरबाद तो हुई रोज़मर्रा उसी ढर्रे पर ज़िन्दगी चलताऊ थी अब जाकर नई दुनिया की सौगात तो हुई पंख फैलाकर आस्मां को नापना आसान है दूर चमके तारों से अब ज़रा बात तो हुई राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

दबी हुई साँसों में.............

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दबी हुई साँसों में अब सिहरन सी होती है ये कौन सी राहें हैं जिनमे अड़चन सी होती है गुज़र रही है ज़िन्दगी जैसे दिन गुज़र रहा है बाकी सारी यादें तो अब बचपन सी होती हैं कहाँ होते है नए ख्वाब? कहाँ होती है नई बात? मेरी तमन्ना तो अब पुरानी उतरन सी होती है मेरा अक्स भी न जाने कहाँ भटक रहा है उसकी मौजूदगी अब टूटे हुए दरपन (दर्पण) सी होती है बहुत सारे शोर के बाद थोड़ी ख़ामोशी ठहरी थी अगले ही पल कोई आवाज़ टूटे हुए बर्तन सी होती है मुझसे नहीं सुलझते हैं ये शिकायती मसले आजकल बस मन के बसेरे में एक उलझन सी होती है कई शामियानों,कई चादरों,कई पर्दों से शहर ढक गया मेरे हिस्से में तो एक पुरानी कतरन सी होती है बेवजह जीना भी तो मुनासिब नहीं रह गया है ज़िन्दगी भी अब देखो टूटी धड़कन सी होती है वैसे तो मौत आने में शायद अभी वक़्त है मगर जीने की आरज़ू भी तो जबरन सी होती है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

जंजाल

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पता नहीं कैसे ये लम्हा भी संभल रहा है हर कदम पर देखो जैसे इस तरह बदल रहा है ये हालात हैं ज़िन्दगी के या रास्तों की ठोकरें कि हाथ कुछ आता नहीं और मंज़र निकल रहा है रेंगती सी ज़िन्दगी है , कुछ नया नहीं हो रहा जो भी है , जैसा भी है, वैसा ही अब चल रहा है फलक पर उड़ने को तो उड़ ही जातें है मगर ज़मीं पर रहने वाला अब तो कंकड़ बन रहा है वक़्त से जीता हैं कौन ? हारे हैं इस से सब देखो तो हर एक नज़र में हाथ से फिसल रहा है किस तरह में अपने मौसम में नयी खुशबू बिखेरूँ फूल का ये एक बगीचा काँटों में बदल रहा है सदियों से भी दिल को देखो,  है यहीं मंडरा रहा ख्वाहिशें तो मर चुकी है फिर भी ये उछल रहा है गर्दिशों का साथ है और बंदिशों की फेहरिस्त भी तभी तो ये मेरा चेहरा अंधेरों में जल रहा है मैं कहीं भी हूँ मगर इतना मुझको है यकीं कि दर्द का ये सख्त,मंज़र मुझमे कितना मिल रहा है एक अधूरी बात है कि परेशानी भी ग़ज़ब है साथ भी नहीं छोड़ती और लम्हा भी बिछड़ रहा है ज़बरदस्ती की शिकायत, शिकवों का जंजाल है क्या? यही है जो मेरे दिल में हर कहीं पर घुल रहा है राजेश बलूनी 'प्रतिब