Thursday, November 20, 2014

आईना


निकल गए हैं ठोकरें खाकर,कोई ठिकाना चाहिए
दो पल बिता लूँ कुछ पहर,एक आशियाना चाहिए

यूँ सांस का चलना भी दूभर हो गया है
ज़िन्दगी जीने का अब कोई बहाना चाहिए

मेरे रुख में किसी तरह की परेशानी आये ना आये
मगर इस चर्चा में लोगों को आना चाहिए

कई मसले हैं जो बड़े पेचीदा हो रहे हैं
उनसे निपटने को कोई सयाना चाहिए

यूँ ही बदस्तूर जारी रहेगा मुश्किलों से सामना
उनसे लड़ने का जज़्बा साथ आना चाहिए

बड़े शहर में लोगों के दिल बहुत छोटे हैं
उन्हें अपनी अक्ल का दायरा बढ़ाना चाहिए


बुझे मन से हर कोई रिश्ते निभाता है यहाँ
सभी को दिल से रिश्ता निभाना चाहिए


कहाँ ढूँढूँ कि घर में अब नमक का बर्तन नहीं है
मेरे अश्कों से दो चार बूंदों का किराना चाहिए

यूँ बड़ी मीठी बोली बोलते हो ज़ुबान से
दिल के अंदर भी मिश्री को मिलाना चाहिए

मैं देखता हूँ अच्छा, बुरा हर किसी में झाँककर
मुझे भी अपने लिए एक आईना चाहिए

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'   

2 comments:

  1. Wah! achchchha likha hai.. aapne..
    khoja nhi yha aapko, bas yunhi mil gaye, blogger pe... par kya likha hai aapne,, umda.. :)

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मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...