समंदर-ए-अश्क़......
दर्द का पता नहीं, जिस्म ये छिल रहा है
मौत की आगोश में दिन भी ढल रहा है
दरीचों से गीली मिटटी हाथ में उठाई
ज़र्रा ज़र्रा हाथ से फिसल रहा है
बात बेबात यहाँ नूराकुश्ती होती है
सुकून भी अपने ठिकाने बदल रहा है
रोज़मर्रा वही हक़ीक़त है जो दिख रही है
सपनों का बगीचा तो सड़ गल रहा है
दोराहे पर खड़े हैं और मंज़िल आ पता नहीं
वक़्त अपनी चाल को धीमा चल रहा है
सुरीली तान तुमने छेड़ी तो थोड़ा सुकून आया
पर दर्द के नग्मों में समंदर-ए-अश्क़ पल रहा है
बेचैन राहें, बेबस इरादे,यही बस अपनी कहानी है
जाने किस ओर अपना रुख बदल रहा है
कीमत भी जज़्बातों की इतनी सस्ती है
की खोटा ही सही अपना भी सिक्का चल रहा है
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
मौत की आगोश में दिन भी ढल रहा है
दरीचों से गीली मिटटी हाथ में उठाई
ज़र्रा ज़र्रा हाथ से फिसल रहा है
बात बेबात यहाँ नूराकुश्ती होती है
सुकून भी अपने ठिकाने बदल रहा है
रोज़मर्रा वही हक़ीक़त है जो दिख रही है
सपनों का बगीचा तो सड़ गल रहा है
दोराहे पर खड़े हैं और मंज़िल आ पता नहीं
वक़्त अपनी चाल को धीमा चल रहा है
सुरीली तान तुमने छेड़ी तो थोड़ा सुकून आया
पर दर्द के नग्मों में समंदर-ए-अश्क़ पल रहा है
बेचैन राहें, बेबस इरादे,यही बस अपनी कहानी है
जाने किस ओर अपना रुख बदल रहा है
कीमत भी जज़्बातों की इतनी सस्ती है
की खोटा ही सही अपना भी सिक्का चल रहा है
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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