Saturday, August 27, 2016

खराशें

मत गुज़र उन रास्तों से जहाँ सब होते हैं
यहाँ हर जगह,हर कदम पर बड़े धोखें हैं

बेसमझ इरादों का नतीजा कुछ ऐसा था
कि अधूरी ख्वाहिशों पर अब सर पटक रोते हैं

वज़न तो उम्मीदों का इस कदर भारी हुआ
कि क़र्ज़ अब ग़मों का यूँ ही ढोते हैं

खाली मकान, टूटा बरामदा, सूखी घासें यही सब बचा हैं
आँगन में अब टूटे शीशों के झरोखें हैं

बात आयी सामने तो हुआ एहसास ये भी
मिलता वही है जो हम जिंदगी में बोते हैं

दर्द का आना जाना तो लगा रहता है अमूमन
पर हंसी के मायने भी आजकल अजीब होते हैं

यूँ खराशें तो ज़ख़्म पर सिमटती ही रहती है मगर
अश्क़ भी नमक बनकर उसको भिगोते हैं

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
     

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