Thursday, December 28, 2017

ज़िंदगीनामा -२


बहुत से अंधेरों में चेहरा दिखा है 
यूँ रातों के चलने से पहरा बढ़ा है 

कोई तो मेरे घर में आए या जाए 
मैं सोचता हूँ ये यूँ ही गाहे -बगाहे 
मगर दिल के अंदर का दायरा घटा है 

ज़ुबानों से कितने ही हमले सहे हैं
ये तरकश के तीरों के जितने बड़े हैं 
मगर हौसलों से ये जीवन अड़ा है 

कितनी दलीलें लिफाफे में बंद थी
मुझे सिर्फ चुप्पी की दुनिया पसंद थी 
कहाँ से ये बातों का जमघट बढ़ा है 

धरती की शह थी या बादल था ज़िद्दी 
जहाँ पर मुझे गीली मिटटी मिली थी 
उसी से तो मेरा घरौंदा बना है 

ख्वाबों की रहमत भी खारिज हुई है 
मरने की जब से गुज़ारिश हुई है 
दर्द का बिस्तर लगा कर रखा है 

जहाँ तक मैं जाऊँ नज़र झुक रही है 
यूँ पलकों की छत में कहाँ चुप रही है 
समंदर है छोटा या पैमाना बड़ा है 

मायूसी नहीं है ये तो किस्मत बनी है 
ये रतिया अँधेरी वहीँ की वहीँ है 
नींदों से ऐसे रिश्ता घटा है 

कागज़ के टुकड़ों में सिमटा हुआ हूँ 
धूलों की चादर में लिपटा हुआ हूँ 
मेरा अक्स जैसे की खो सा गया है 

इधर आंसुओं से ये दरिया बहेगा 
उधर यादों के घर में सहरा बंधेगा 
ये सौदा तो लगता बड़ा ही खरा है 

कई दिन बिताये खड़े हैं शहर में 
मगर छुप रहे हैं सवालों के घर में 
ये कैसा है मंज़र जो मुझको दिखा है 

ये ग़ुरबत का फैला हुआ क्या असर है 
यूँ गर्दिश में रहना सहा सा हुआ है
शहरों में मातम सा पसरा हुआ है  

बारिश की धरती कि गन्दा बिछौना 
कहाँ पर निकलता है मिटटी से सोना 
उसी पर तो सारा मुक्कद्दर लगा है 

नहीं तो नहीं है, मगर हाँ कहाँ है 
मेरे लैब तो चुप है, फिसलती ज़ुबाँ है 
ये कैसा है संगम किधर से बना है 

उतरती नहीं है ये पलकों की रंजिश 
लगा जो रखी है ये अश्कों की बंदिश 
इन्ही से तो आगे को होता बुरा है 

बहुत थक गया हूँ पलों को ही गिनते 
अगर रह भी जाते समय से संभलते 
नहीं फिर कहीं कोई दुखड़ा पड़ा है 

अश्कों के बहने से भी तिश्नगी है 
ज़िंदा है यादें यही ज़िन्दगी है 
इसी ने तो हमको सहारा दिया है 

ये चिट्ठी नहीं हैं , ये अक्षर की दुनिया 
ये प्रेमों के निर्झर, ये काँटों की बतिया 
ये जीवन जला है या बुझता गया है 


राजेश बलूनी 'प्रतिबम्ब'



Friday, October 6, 2017

ज़हन





खुश कम रहें तो भी कलह नहीं होती
यूँ बेबात झगड़ने की कोई वजह नहीं होती

मेरी शाम कुछ बिखरते हुए पन्नों में सिमट गयी है
रात होने को है पर कहीं सुबह नहीं होती

बहुत कोशिशें की थी हालत से दर-ब-दर
बड़ी मुद्दत्तों  के बाद भी कोई  सुलह नहीं होती

छूटते हैं रिश्ते कई मतलबी मंसूबों के लिए
थाम सकूं उनको ऐसी गिरह नहीं होती

खानाबदोश हुआ साया जो वैसे ही गुमनाम था
उस से मेरी वजूद की कोई जिरह नहीं होती

हवा भी दोष देती हैं साँसों को इस तरह
की धड़कनो में जीने की वजह नहीं होती

सूखे हैं जज़्बात सब पानी हो चला है
आदमी की परछाई की कोई सतह नहीं होती

पीठ पर खंजर से वार करने वालों के लिए
दिल के किसी कोने में जगह नहीं होती

वो रोज़ मेरे लोगों के लिए परेशानी का सबब बनता है
दोस्तों की पहल कभी इस तरह नहीं होती

मेरे ज़हन में कई सवाल कौंध रहे हैं बेसबब
यूँ हालत से हारी हुई बाज़ी बेवजह नहीं होती


राजेश बलूनी ' प्रतिबिम्ब' 

Monday, July 10, 2017

कोई गीत नहीं बचा है......

यूँ ज़िन्दगी से कुछ सीख नहीं सका
कि टूटते रिश्तों की डोर खींच नहीं सका

ऐसा नहीं कि ज़िन्दगी का साज़ बेसुरा
बस मेरे पिटारे में कोई गीत नहीं बचा

कई नग़मे लिख चुका हूँ क़दमों की ताल पर  
अब थिरकते पांवो के लिए संगीत नहीं बचा है

राहगीर आता है घर में लौटकर तो देखता  है
घर में इंतज़ार को मनमीत नहीं बचा 

बाज़ियां बहुत खेली मैंने और एक सिरे तक पहुंचा भी
बहुत मशक्कत के बाद भी मैं जीत नहीं सका

कुछ अंकुरित फुलवारी रही थी कभी यहाँ
मगर अब सहरा में कोई बीज नहीं उगा

परेशां मैं हूँ कोई बात नहीं है मेरे यार
पर मेरे लिए तेरा उदास होना ठीक नहीं लगा

तूफ़ान भी आया बवंडर भी आया
इतना बड़ा समंदर भी आया,पर दीप नहीं बुझा

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


Sunday, January 29, 2017

जन्मदिवस आया, नयी थाह लाया


जन्मदिवस आया, नयी थाह लाया
अर्ध संकल्पित जीवन में पूर्णता की चाह लाया

विदित हो कि जीवन का प्रतिक्षण अनुपम है
यही तो सुखानुभूति और दुखों का संगम है
परिचित भी जब दूर जाये और अज्ञात छवि
जब पास आए, अनुभव की इस  सृष्टि में
ईश्वर ने क्या खेल दिखाए !
मन मस्तिष्क हुआ प्रसन्न जब अंधियारे में कोई साथ आया
जन्मदिवस आया, नयी थाह लाया.......

अवरुद्ध मार्ग है, असंख्य विलाप हैं
नाना प्रकार के क्रियाकलाप हैं
शीतलता का मर्म साथ में ,क्रोध का उन्मत्त उच्चताप लाया
शमन चित्त, नयन स्थिर,वेनियों ने झंकृत राग गाया
जन्मदिवस आया, नयी थाह लाया.......

दिव्य ज्योति से प्रबुद्ध ज्ञान, सम्पूर्ण विश्व का सम्मान,
विकृत विचारों का परित्याग, रात्रिकोश से उद्घृत विहान
विमर्श-विनिमय की स्वतंत्रता का भान, शांति स्थापित करे फिर प्राण,
पर उग्रता का भी है स्थान,
हृदय-मस्तिष्क के मंथन में स्मृति-अमृत पास आया
जन्मदिवस आया, नयी थाह लाया.......

अंतिम श्वास का यही है बोध
जीवन में हर स्मृति का कोष
कुछ मधुर संगीत का लोकमंचन,
कुछ असीमित कटु सत्य का प्रतिरोध
इन्ही विमर्श-बूटियों से नया जीवन-विचार आया
 जन्मदिवस आया, नयी थाह लाया.......

राजेश बलूनी 'प्रतिबम्ब'

 

 

Tuesday, January 24, 2017

नकली ज़िंदगी


दुनिया मे चकाचौंध अजब नहीं है 
मुख़ौटे ओढना यहाँ ग़लत नहीं है    
तुझे भी पसंद नहीं सादगी तो छोड़ो 
तू भी दुनिया से कुछ अलग नहीं है 
वो नकली ज़िंदगी का हवाला देते हैं 
पर मेरी सच्चाई का मुझमे बस नहीं है 
क्या शानो -शौकत जब ज़मीर ही खोखला है
लगता है तुम्हे ज़िंदगी की परख नहीं है 
मैं तो रहूँगा हमेशा ऐसे ही खालिस
तुझे मैला रहने से फ़ुर्सत नहीं है 
कद्र नहीं होती यहाँ भोलेपन की देख लो
चालबाज़ी कर लूँ  ऐसी शख्सियत नहीं है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'  

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...