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Showing posts from June, 2018

बेचराग होती हैं गलियां.......

बेचराग होती हैं गलियां, सभी दिल टूट गए  कश्मकश का दौर है, सारे साथी छूट गए रुके फैसलों से ज़िन्दगी नहीं चला करती है  और भी ना जाने कितने मंज़र रुक गए मिला था कुछ अधूरा सा अपनापन कभी विदा होकर साथियों से, सारे जज़्बात छूट गए ठिकाना बमुश्किल से घास फूस का ही बनाया था  वो बड़ी बेदर्दी से मेरा घर फूंक गए पाया कि अक्ल में समझदारी का अकाल है  और दिमाग की नसों के शैवाल सूख गए ये अश्क भी समंदर का अक्स होते हैं  ज़िन्दगी के इस मुहाने पर इन्ही में डूब गए ग़लतफ़हमी थी कि होशियारी आ गयी है हमको  अनाड़ी ही थे जो हर मामले में चूक गए सांस के चलने से ज़िन्दगी का एहसास हुआ  गनीमत है कि मरने की खैर खबर पूछ गए आसां नहीं हैं इस तरह हर पल को समेटना  लम्हे भी देखो अब वक से रूठ गए वो मेरे आशियाने में आने से कतराते हैं  और दुश्मनो की महफ़िल में बहुत खूब गए अब हालात पर अपने उबकाई से आती है सचमुच इस ज़िन्दगी से हम इतना ऊब गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

उस बुझते दिए की.......

उस बुझते दिए की साख क्या होगी रात से अँधेरा जो उधार लाया सलीका तो मैंने भी सीखा नहीं बेहयाई की फितरत को साथ लाया एक पहर धूप क्या ज़्यादा हुई सूरज को खुद पर गुमान आया चेहरा भी मेरा बदरंग सा हो गया मैं जल्दी से शीशे में उतार लाया लफ़्फ़ाज़ी की आदत भी कहीं छूटती है भला हक़ीक़त का उसने यूँ मज़ाक उड़ाया मिज़ाज कुछ बेतरतीब से हो चले हैं भौंहों में गुस्से का ग़ुबार आया उसके वजूद की शिनाख्त नहीं हुई इसीलिए मरने का ख्याल आया रुआँसा होकर निकला मैं वहां से जहाँ बस नाउम्मीदी और इंतज़ार पाया अब मेरे जिस्म में रूह का सन्नाटा  है लगता है बहुत दिनों बाद बुखार आया - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

यूँ ज़िन्दगी से......

यूँ ज़िन्दगी से मुलाकात का बहाना था बस आखिरी लम्हों में वक़्त को बुलाना था मुसलसल था सफर और शिकायतें भी कई थी याद भी करें तो क्यों, आखिर उन्हें भुलाना था उस चेहरे से झिझक की त्योरियां उतर गयी हमें तो बस आँखों का सूरमा दिखाना था सांस भी भूली हुई सी कहानी का हिस्सा है ज़िन्दगी के टुकड़ों को समेट कर लाना था कुछ वजूहात रहे होंगे, तभी तो वो चुप रहे कोई राज था जो उनको छुपाना था अब खानाबदोशी का आलम ये हो गया है कि सर पर बस आसमां का शामियाना था वो तालीम भी किसी के काम नहीं आयी जिसकी रवायत में इंसानियत का फ़साना था ये नफरतों का तर्जुमा है कि लोग अब पूछते नहीं उनका मकसद तो हमें नज़रों से गिराना था राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तेरी आवाज़

तेरी आवाज़ से तन्हाई में जो खलल होता है वही आजकल मेरे जीने का सबब होता है तीखी नज़रों से सामना होता है मेरा रोज़ इस तरह दिन गुज़रना बड़ा अजब होता है ये लगाव है या अच्छे वक़्त का इशारा पहली पसंद का एहसास कुछ अलग होता है एक मुस्कराहट से पूरे दिन का खुशनुमा होना ये करिश्मा भी बड़ा ग़ज़ब होता है खुशबू में घुल गया है ज़िन्दगी का मौसम हज़ारों फूलों से बेहतरीन कँवल होता है परेशां है ज़हन कि इधर-उधर भटकता है सुकून भी न जाने क्यों बेअसर होता है हंसी भी रोज़ न जाने कितने आंसुओं को भुलाती है ख्वाबों में आजकल नया महल होता है - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'