यूँ ज़िन्दगी से......

यूँ ज़िन्दगी से मुलाकात का बहाना था

बस आखिरी लम्हों में वक़्त को बुलाना था


मुसलसल था सफर और शिकायतें भी कई थी

याद भी करें तो क्यों, आखिर उन्हें भुलाना था


उस चेहरे से झिझक की त्योरियां उतर गयी

हमें तो बस आँखों का सूरमा दिखाना था


सांस भी भूली हुई सी कहानी का हिस्सा है

ज़िन्दगी के टुकड़ों को समेट कर लाना था


कुछ वजूहात रहे होंगे, तभी तो वो चुप रहे

कोई राज था जो उनको छुपाना था


अब खानाबदोशी का आलम ये हो गया है

कि सर पर बस आसमां का शामियाना था


वो तालीम भी किसी के काम नहीं आयी

जिसकी रवायत में इंसानियत का फ़साना था


ये नफरतों का तर्जुमा है कि लोग अब पूछते नहीं

उनका मकसद तो हमें नज़रों से गिराना था

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



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