उस बुझते दिए की.......
उस बुझते दिए की साख क्या होगी
रात से अँधेरा जो उधार लाया
सलीका तो मैंने भी सीखा नहीं
बेहयाई की फितरत को साथ लाया
एक पहर धूप क्या ज़्यादा हुई
सूरज को खुद पर गुमान आया
चेहरा भी मेरा बदरंग सा हो गया
मैं जल्दी से शीशे में उतार लाया
लफ़्फ़ाज़ी की आदत भी कहीं छूटती है भला
हक़ीक़त का उसने यूँ मज़ाक उड़ाया
मिज़ाज कुछ बेतरतीब से हो चले हैं
भौंहों में गुस्से का ग़ुबार आया
उसके वजूद की शिनाख्त नहीं हुई
इसीलिए मरने का ख्याल आया
रुआँसा होकर निकला मैं वहां से
जहाँ बस नाउम्मीदी और इंतज़ार पाया
अब मेरे जिस्म में रूह का सन्नाटा है
लगता है बहुत दिनों बाद बुखार आया
- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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