Wednesday, February 6, 2019

खुशफहमी...

















तेरी यादों के भंवर में कुछ ऐसे उलझे
कि ज़िन्दगी के कई मसले सुलझ नहीं पाए

बेहतरी के लिए ही कुछ सलाहें दी थी
पर  दिमाग के फितूर उसे समझ नहीं पाए

कुछ बनने का सपना तो बहुत देखा तूने
कुछ करने के वास्ते हड्डियाँ खरच नहीं पाए

तय किया था कि मुकाम पाने तक रफ़्तार नहीं थमेगी
मेरी नालायकी से हम मंज़िल तक पहुंच नहीं पाए

कितने लोग समझदारी का तमगा लिए फिरते हैं
मगर बेवकूफों की भीड़ से निकल नहीं पाए

ऊपर ऊपर से तो सबकी ख़ुशी का नज़ारा देखता हूँ
मगर दिल तक किसी के उतर नहीं पाए

पहले परवाज़ की तैयारी तो चिड़िया ने कर ही दी थी
बस नए परिंदे ज़हन में हौसला भर नहीं पाए

मैं भी क्या करूँ कि आदत हो चुकी है सुस्त रहने की
इसीलिए तो ज़िन्दगी में कुछ कर नहीं पाए

राजेश बलूनी  'प्रतिबिम्ब'

No comments:

Post a Comment

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...