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ज़माने का ज़ोर है...














ज़माने का ज़ोर है कि टूट जाऊं
अपनी दहलीज पर ही रुक जाऊं

तसल्ली नहीं होती उसे जब भी कुछ करूं
उसका इरादा है कि झुक जाऊं

पहले से ज़्यादा महीन हो चुका हूँ
अब क्या चाहती हो, मिट जाऊं

मेरे चेहरे पर शिकन अपना रुआब दिखाती है
और तुम कहती हो कि मुस्कुराऊं

अब कौन सा पैंतरा सोच रही हो
तुम्हारा बस चले तो मैं फुक जाऊं

बेवजह के शिकवे भी इसलिए हैं
तुम चाहती हो तुमसे दूर जाऊं

मेरे दर्द  से तुझे फर्क पड़े मैंने नहीं देखा
बस तेरी उम्मीद पर खरा उतर जाऊं

जब हमारा साज़ ही बेसुरा है
तो तेरे सुर से सुर क्यों मिलाऊं

थोड़ी इज्जत और प्यार की उम्मीद थी
तेरे ऐसे करम है कि भूल जाऊं

अब ज़िन्दगी को ऐसे झेल रहे हैं
कि समझ नहीं आता क्या बताऊं

-
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


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खाली पन्ना

क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तसल्ली

मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

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