कुछ याद का भरम है.....
कुछ याद का भरम है , कुछ बीते कल का निशाँ कहीं रात की बेरुखी है , कहीं सुबह का धुआं खुदगर्जी की धूल लिपटी है अब मेरे अक्स में ढूँढूँ अब अब किस जगह पर अपना ईमान कहानी क्या है कुछ पन्नों की सलवटें थी अधूरे ख्वाबों में अब रहती है दास्ताँ बेशक्ल है अब रोशनी मेरे घर के दरवाज़ों से और छा रहा है देखो अब ये अँधेरा घना सरकते रेतों के ज़र्रे और बेरंग होती दीवारें कुछ यूँ उजड़ता हुआ सा है मेरा आशियाँ ठंडे से एहसास अब ज़हन के आस पास हैं और तल्ख़ बातों से बढती है गर्मियां कुछ खिलाफ हुआ मेरे लिए तकदीर का भरोसा और वक़्त भी नहीं है अब मुझ पर मेहरबां पुरानी सोच का मलबा और गिरती इंसानियत का आलम अब लग रहा हूँ जैसे मैं पत्थरों से बना कुछ बात करूँ तो मुंह सिकुड़ने लगता है खुद ही और ऊपर से ताने देती है खामोशियाँ पास है कौन सब उस छोर पर बैठे हंस रहे हैं करूँ भी तो किस से करूँ अपनी हालत को बयां राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'