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Showing posts from May, 2013

कुछ याद का भरम है.....

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कुछ याद  का भरम है , कुछ बीते कल का निशाँ कहीं रात की बेरुखी है , कहीं सुबह का धुआं खुदगर्जी की धूल लिपटी है अब मेरे अक्स में ढूँढूँ अब अब किस जगह पर अपना ईमान कहानी क्या है कुछ पन्नों की सलवटें थी अधूरे ख्वाबों में अब रहती है दास्ताँ बेशक्ल है अब रोशनी मेरे घर के दरवाज़ों से और छा रहा है देखो अब ये अँधेरा घना सरकते रेतों के ज़र्रे और बेरंग होती दीवारें कुछ यूँ उजड़ता हुआ सा है मेरा आशियाँ ठंडे से एहसास अब ज़हन के आस पास हैं और तल्ख़ बातों से बढती है गर्मियां कुछ खिलाफ हुआ मेरे लिए तकदीर का भरोसा और वक़्त भी नहीं है अब मुझ पर मेहरबां पुरानी सोच का मलबा और गिरती इंसानियत का आलम अब लग रहा हूँ जैसे मैं पत्थरों से बना कुछ बात करूँ तो मुंह सिकुड़ने लगता है खुद ही और ऊपर से ताने देती है खामोशियाँ पास है कौन सब उस छोर पर बैठे हंस रहे हैं करूँ भी तो किस से करूँ अपनी हालत को बयां राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

गफ़लत

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सोचा कि एक नया जहाँ बनाया जाए मेरी मुश्किलों से कोई पर्दा हटाया जाए शायरी से आती दाद का भरोसा भी न हो जो चलो किसी ग़ज़ल को नया काफिया दिया जाए देखिये ये जलजलों की कैफ़ियत बेमानी है हर ज़र्रों से कोई नया सहरा बनाया जाए शज़र की टूटी शाख से कोई परिन्दा नहीं निकला इस पुराने मौसम में उसे खोखला कराया जाए बेज़ार रहा है मरहम कभी ज़ख्म से सटकर भी अब ज़रा एक नए दर्द से जिस्म दबाया जाए आबरू क्या थी उस बेपर्दा शख्स की महफ़िल में उसे होश नहीं चलो अपने नैनो में पर्दा डाला जाए अगल बगल सामानों को करीने से सजा रखा है गफ़लत में माहौल को फिर क्यों डराया जाए लहजा भी सबका अपनी जगह से खामोश है कुछ अपनी जुबानो पर भी ताला लगाया जाए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज्वाला..........

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ऐ पूरानी यादों के मरहम कभी मेरे घर पर आओ कुछ नहीं तो ज़ख्मों को तुम कुछ पलों में छेड़ जाओ झंझटों से बंध चुकी है ये मेरी आवारगी कोई तो आज़ाद चिलमन का भरोसा देके जाओ अंधभक्ति हो रही है हर डगर हर गाँव में सच्ची श्रद्धा की किरण को यूँ न कोई फेंक आओ बेमियादी सोच है कि हैं नहीं इंसानियत भी किस तरह फिर इक सुबह का दीप दिल में भेज पाओ आंगनों में खिल रही है बारूदों की नस्ल भी अब दहशती माहौल से अब पीछा अपना छोड़ आओ गेंद अब पाले में हैं ये जानकर भी क्या करें अब इस सड़ी सरकार का मन फिर कोई टटोल लाओ सह रहे हैं तेज़ आंधी के फवारे बाग़ों में हम खून के छीटों में चीखों को संभल कर लेके जाओ ज़हनियत है आदमी की कोरी सी अवसाद रश्मि हे प्रभाकर तुम भी सब से यूँ अँधेरा गूंथ लाओ है मेरी संवेदना का ह्रदय भी गदगद है देखो मानसिकता है नपुंसक ताली हाथों से बजाओ ढेर है बीमारियों से मन की ये  निश्लाभ पीड़ा करुण ह्रदय से तो अब तुम कोई ज्वाला फिर जलाओ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

पता नहीं...................

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पता नहीं रंगों से भरी सुबह में हम शामिल हैं मेरी ज़िन्दगी की शाम का कोई एतबार नहीं ज़रा जोड़ दो टुकड़ों को कहीं हंसी गिर जाएगी चुप्पी साधे बैठे हो कोई आवाज़ तो फिर आएगी मगर ये सोचने में क्या रखा है आखिर हमें किसी ख़ुशी का इंतज़ार नहीं जुबां पर एक ही फ़साना है टूटा फूटा कोई दिल का तराना है कि समेटेंगे राज़ ज़िन्दगी के क्योंकि हमारा कोई राजदार नहीं फर्श पर खून से लिप्त है सपना खौलेगा खून पर उसे संभाल कर रखना न जाने कब कहाँ कोई रोशनी मिले हम ज़ख़्मी ज़रूर हैं पर लाचार नहीं छोड़ो बेवक़्त की आरज़ू हमने पाली है यहाँ उजली धूप में भी सुबह काली है पता नहीं किस ओर हमारा संसार है पर हम सोचते हैं कि हमारा कोई संसार नहीं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सहर

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मुझे अपनी बातों पर गौर करना होगा क्या है हक़ीकत मेरी ये परखना होगा बेफ़िक्र नहीं है मेरी शख्सियत ज़हन मे किसी गम को तो रहना होगा राह थमती नज़र नहीं आ रही है मेरे कदमों को आगे बढ़ना होगा मुश्किलें आएँगी कई मगर रुकूंगा नहीं मुझे अपने इरादों को मज़बूत करना होगा बीच बाज़ार मे बेइज़्ज़त होने का गम नहीं सच की डगर पे हमेशा चलना होगा आँसू अगर बहते हैं तो कोई गिला नहीं मुझे मुस्कराते हुए हालातों से लड़ना होगा बहुत गहरी और काली है ज़िंदगी  की शब पर मुझे तो सहर का इंतज़ार करना होगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'