ज्वाला..........
ऐ पूरानी यादों के मरहम कभी मेरे घर पर आओ
कुछ नहीं तो ज़ख्मों को तुम कुछ पलों में छेड़ जाओ
झंझटों से बंध चुकी है ये मेरी आवारगी
कोई तो आज़ाद चिलमन का भरोसा देके जाओ
अंधभक्ति हो रही है हर डगर हर गाँव में
सच्ची श्रद्धा की किरण को यूँ न कोई फेंक आओ
बेमियादी सोच है कि हैं नहीं इंसानियत भी
किस तरह फिर इक सुबह का दीप दिल में भेज पाओ
आंगनों में खिल रही है बारूदों की नस्ल भी अब
दहशती माहौल से अब पीछा अपना छोड़ आओ
गेंद अब पाले में हैं ये जानकर भी क्या करें अब
इस सड़ी सरकार का मन फिर कोई टटोल लाओ
सह रहे हैं तेज़ आंधी के फवारे बाग़ों में हम
खून के छीटों में चीखों को संभल कर लेके जाओ
ज़हनियत है आदमी की कोरी सी अवसाद रश्मि
हे प्रभाकर तुम भी सब से यूँ अँधेरा गूंथ लाओ
है मेरी संवेदना का ह्रदय भी गदगद है देखो
मानसिकता है नपुंसक ताली हाथों से बजाओ
ढेर है बीमारियों से मन की ये निश्लाभ पीड़ा
करुण ह्रदय से तो अब तुम कोई ज्वाला फिर जलाओ
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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