Friday, May 10, 2013

गफ़लत





सोचा कि एक नया जहाँ बनाया जाए
मेरी मुश्किलों से कोई पर्दा हटाया जाए

शायरी से आती दाद का भरोसा भी न हो जो
चलो किसी ग़ज़ल को नया काफिया दिया जाए

देखिये ये जलजलों की कैफ़ियत बेमानी है
हर ज़र्रों से कोई नया सहरा बनाया जाए

शज़र की टूटी शाख से कोई परिन्दा नहीं निकला
इस पुराने मौसम में उसे खोखला कराया जाए

बेज़ार रहा है मरहम कभी ज़ख्म से सटकर भी
अब ज़रा एक नए दर्द से जिस्म दबाया जाए

आबरू क्या थी उस बेपर्दा शख्स की महफ़िल में
उसे होश नहीं चलो अपने नैनो में पर्दा डाला जाए

अगल बगल सामानों को करीने से सजा रखा है
गफ़लत में माहौल को फिर क्यों डराया जाए

लहजा भी सबका अपनी जगह से खामोश है
कुछ अपनी जुबानो पर भी ताला लगाया जाए


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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