हकीकत के नाम
सपनो से अलग, हकीकत के नाम पीढ़ियों दर पीढ़ी गुज़रती ये शाम महफ़िलों से लुटती वाह वाही भी देखी देखा है टूटता और छलकता जाम झूठ के मुखौटों से चेहरा छुपाकर सच को किया है सबने बदनाम कौन है जो साथ देने का दम भरता है मिलेगा कहीं नहीं जब भेजेंगे पैग़ाम घिसे हुए जूते और झुर्रियों भरा चेहरा सच्चाई के ठोकरों का यही है इनाम ज़िन्दगी तो वैसे ही महंगी हो चली है लाशों का भी आजकल ऊंचा है दाम रोटी तो होती नहीं गरीब की थाली में लानतें मिलती है अमीरों से तमाम शायर हूँ तो लिख रहा हूँ फिक्रमंद होकर इसी उम्मीद में कि ढलेगी ये शाम -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'