Sunday, December 11, 2016

हकीकत के नाम




सपनो से अलग, हकीकत के नाम
पीढ़ियों दर पीढ़ी गुज़रती ये शाम

महफ़िलों से लुटती वाह वाही भी देखी
देखा है टूटता और छलकता जाम

झूठ के मुखौटों से चेहरा छुपाकर
सच को किया है सबने बदनाम

कौन है जो साथ देने का दम भरता है
मिलेगा कहीं नहीं जब भेजेंगे पैग़ाम

घिसे हुए जूते और झुर्रियों भरा चेहरा
सच्चाई के ठोकरों का यही है इनाम

ज़िन्दगी तो वैसे ही महंगी हो चली है
लाशों का भी आजकल ऊंचा है दाम

रोटी तो होती नहीं गरीब की थाली में
लानतें मिलती है अमीरों से तमाम

शायर हूँ तो लिख रहा हूँ फिक्रमंद होकर
इसी उम्मीद में कि ढलेगी ये शाम

-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'





Thursday, October 27, 2016

बदस्तूर




टूटे हुए धागे से अब कोई माला नहीं जोड़ता
बिगड़ने से पहले कोई क्यों नहीं सोचता

मैं तो यूँ ही जिया हूँ दोस्तों की खातिर
सर्द रात की फ़िक्र होती तो लिहाफ़ नहीं छोड़ता

बहुत लोग हैं जो अपनी बात से जल्दी मुकर जाते हैं
मेरी फ़ितरत है कि मैं वादा नहीं तोड़ता

सच का इस कदर मैं ग़ुलाम हो चुका हूँ
कि चाहने पर भी झूठ से रिश्ता नहीं जोड़ता

अब बदस्तूर रास्तों  की ख़ाकें छान  रहा हूँ
नहीं तो मैं दीवारों मे अपना सिर नहीं फोड़ता

बड़ा अजब है कि लोग यहाँ कौड़ियों के लिए कत्ल करते हैं
क्या उन्हे उनका ज़मीर नहीं कचोटता

मैं समंदर के किनारे समेट रहा हूँ पलकों मे
अब अश्कों को गिरने से मैं नहीं रोकता

- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

Saturday, August 27, 2016

खराशें

मत गुज़र उन रास्तों से जहाँ सब होते हैं
यहाँ हर जगह,हर कदम पर बड़े धोखें हैं

बेसमझ इरादों का नतीजा कुछ ऐसा था
कि अधूरी ख्वाहिशों पर अब सर पटक रोते हैं

वज़न तो उम्मीदों का इस कदर भारी हुआ
कि क़र्ज़ अब ग़मों का यूँ ही ढोते हैं

खाली मकान, टूटा बरामदा, सूखी घासें यही सब बचा हैं
आँगन में अब टूटे शीशों के झरोखें हैं

बात आयी सामने तो हुआ एहसास ये भी
मिलता वही है जो हम जिंदगी में बोते हैं

दर्द का आना जाना तो लगा रहता है अमूमन
पर हंसी के मायने भी आजकल अजीब होते हैं

यूँ खराशें तो ज़ख़्म पर सिमटती ही रहती है मगर
अश्क़ भी नमक बनकर उसको भिगोते हैं

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
     

Saturday, July 16, 2016

रात बेशहर है


तकल्लुफ नहीं है ज़हन मे कि बाकी उमर है
बाद मे गौर करेंगे कि  कौन सा सफ़र है

उजली धूप यहाँ पर काली हो गयी
सूरज के अंदर भी अँधेरे का घर है

तमाम हथकंडे अपनाए तन्हाई के
आसपास मगर शोरगुल के मंज़र है

उम्मीद लंगड़ी हो गयी कि  पैर तिठकने लगे
मौत तो आती नहीं और ज़िंदगी बेअसर है

निशान भी देखे कि सब मिट गये हैं
बस रेत के बड़े बड़े रेगिस्तान नज़र है

बिना मंज़िल के क़दमों को बढ़ाए जा रहे हैं
पता नहीं कौन सा बेनाम ये सफर है

दर्द के टुकड़ों पर मुस्कराहट की परत नहीं होती
नैनों में बसता अब अश्कों का शहर है

सुबह की हवाएँ कभी मायूस हो जाती है
अपने ठिकाने पर नहीं रात अब बेशहर है

                      -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


Monday, May 9, 2016

समंदर-ए-अश्क़......

दर्द का पता नहीं, जिस्म ये छिल रहा है
मौत की आगोश में दिन भी ढल रहा है

दरीचों से गीली मिटटी हाथ में उठाई
ज़र्रा ज़र्रा हाथ से फिसल रहा है

बात बेबात यहाँ नूराकुश्ती होती है
सुकून भी अपने ठिकाने बदल रहा है

रोज़मर्रा वही हक़ीक़त है जो दिख रही है
सपनों का बगीचा तो सड़ गल रहा है

दोराहे पर खड़े हैं और मंज़िल आ पता नहीं
वक़्त अपनी चाल को धीमा चल रहा है

सुरीली तान तुमने छेड़ी तो थोड़ा सुकून आया
पर दर्द के नग्मों में समंदर-ए-अश्क़ पल रहा है

बेचैन राहें, बेबस इरादे,यही बस अपनी कहानी है
जाने किस ओर अपना रुख बदल रहा है

कीमत भी जज़्बातों की इतनी सस्ती है
की खोटा ही सही अपना भी सिक्का चल रहा है
 
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...