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हकीकत के नाम

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सपनो से अलग, हकीकत के नाम पीढ़ियों दर पीढ़ी गुज़रती ये शाम महफ़िलों से लुटती वाह वाही भी देखी देखा है टूटता और छलकता जाम झूठ के मुखौटों से चेहरा छुपाकर सच को किया है सबने बदनाम कौन है जो साथ देने का दम भरता है मिलेगा कहीं नहीं जब भेजेंगे पैग़ाम घिसे हुए जूते और झुर्रियों भरा चेहरा सच्चाई के ठोकरों का यही है इनाम ज़िन्दगी तो वैसे ही महंगी हो चली है लाशों का भी आजकल ऊंचा है दाम रोटी तो होती नहीं गरीब की थाली में लानतें मिलती है अमीरों से तमाम शायर हूँ तो लिख रहा हूँ फिक्रमंद होकर इसी उम्मीद में कि ढलेगी ये शाम -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बदस्तूर

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टूटे हुए धागे से अब कोई माला नहीं जोड़ता बिगड़ने से पहले कोई क्यों नहीं सोचता मैं तो यूँ ही जिया हूँ दोस्तों की खातिर सर्द रात की फ़िक्र होती तो लिहाफ़ नहीं छोड़ता बहुत लोग हैं जो अपनी बात से जल्दी मुकर जाते हैं मेरी फ़ितरत है कि मैं वादा नहीं तोड़ता सच का इस कदर मैं ग़ुलाम हो चुका हूँ कि चाहने पर भी झूठ से रिश्ता नहीं जोड़ता अब बदस्तूर रास्तों  की ख़ाकें छान  रहा हूँ नहीं तो मैं दीवारों मे अपना सिर नहीं फोड़ता बड़ा अजब है कि लोग यहाँ कौड़ियों के लिए कत्ल करते हैं क्या उन्हे उनका ज़मीर नहीं कचोटता मैं समंदर के किनारे समेट रहा हूँ पलकों मे अब अश्कों को गिरने से मैं नहीं रोकता - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

खराशें

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मत गुज़र उन रास्तों से जहाँ सब होते हैं यहाँ हर जगह,हर कदम पर बड़े धोखें हैं बेसमझ इरादों का नतीजा कुछ ऐसा था कि अधूरी ख्वाहिशों पर अब सर पटक रोते हैं वज़न तो उम्मीदों का इस कदर भारी हुआ कि क़र्ज़ अब ग़मों का यूँ ही ढोते हैं खाली मकान, टूटा बरामदा, सूखी घासें यही सब बचा हैं आँगन में अब टूटे शीशों के झरोखें हैं बात आयी सामने तो हुआ एहसास ये भी मिलता वही है जो हम जिंदगी में बोते हैं दर्द का आना जाना तो लगा रहता है अमूमन पर हंसी के मायने भी आजकल अजीब होते हैं यूँ खराशें तो ज़ख़्म पर सिमटती ही रहती है मगर अश्क़ भी नमक बनकर उसको भिगोते हैं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'      

रात बेशहर है

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तकल्लुफ नहीं है ज़हन मे कि बाकी उमर है बाद मे गौर करेंगे कि  कौन सा सफ़र है उजली धूप यहाँ पर काली हो गयी सूरज के अंदर भी अँधेरे का घर है तमाम हथकंडे अपनाए तन्हाई के आसपास मगर शोरगुल के मंज़र है उम्मीद लंगड़ी हो गयी कि  पैर तिठकने लगे मौत तो आती नहीं और ज़िंदगी बेअसर है निशान भी देखे कि सब मिट गये हैं बस रेत के बड़े बड़े रेगिस्तान नज़र है बिना मंज़िल के क़दमों को बढ़ाए जा रहे हैं पता नहीं कौन सा बेनाम ये सफर है दर्द के टुकड़ों पर मुस्कराहट की परत नहीं होती नैनों में बसता अब अश्कों का शहर है सुबह की हवाएँ कभी मायूस हो जाती है अपने ठिकाने पर नहीं रात अब बेशहर है                       -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

समंदर-ए-अश्क़......

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दर्द का पता नहीं, जिस्म ये छिल रहा है मौत की आगोश में दिन भी ढल रहा है दरीचों से गीली मिटटी हाथ में उठाई ज़र्रा ज़र्रा हाथ से फिसल रहा है बात बेबात यहाँ नूराकुश्ती होती है सुकून भी अपने ठिकाने बदल रहा है रोज़मर्रा वही हक़ीक़त है जो दिख रही है सपनों का बगीचा तो सड़ गल रहा है दोराहे पर खड़े हैं और मंज़िल आ पता नहीं वक़्त अपनी चाल को धीमा चल रहा है सुरीली तान तुमने छेड़ी तो थोड़ा सुकून आया पर दर्द के नग्मों में समंदर-ए-अश्क़ पल रहा है बेचैन राहें, बेबस इरादे,यही बस अपनी कहानी है जाने किस ओर अपना रुख बदल रहा है कीमत भी जज़्बातों की इतनी सस्ती है की खोटा ही सही अपना भी सिक्का चल रहा है   राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'