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Showing posts from February, 2019

बेस्वाद...

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गिरे गलियों मे खून के छींटे और कटें है दरखतों में बगीचे आवाज़ें नहीं ये दर्द के फव्वारे हैं या बन गयी हैं मुकम्मल चीख़ें मेरा तो मकान तेरे घर के सामने था पर दिलों की गर्द  है कि सरहदें खीचें बीते वक़्त का लौटना आख़िर क्यों नहीं होता रोज़ यही सोचकर माथे को पीटें कल बड़ी शिद्दत से हमसे हाथ मिलाया आज थोड़ी सी तरक़्क़ी से बदल गये तरीके मेरे सामने चेहरे पर मुस्कुराहट रहती है पीछे से तब्बस्सुम को गुस्से से भींचे खवाब बड़ा देखा आसमान बनाने का पंख कतरने पर आ गये हैं नीचे जितनी तेज़ चला मैं गुनाहों की राह मे उतना ही ज़िंदगी रह गई पीछे क्यों बेस्वाद सा ये ज़िंदगी का सफ़र है क्यों हर लम्हे लग रहे हैं फीके राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

गुच्छे

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अभी तो सिर्फ़ ज़िक्र हुआ है निगेहबानी तो बाद मे होगी एक बूँद साँस अभी जन्मी है ज़िंदगानी तो बाद मे होगी ख़ुशामद करने मे ज़िंदगी बीत  गयी मेहरबानी तो बाद मे होगी इस ज़माने को भूलने की आदत है  मगर निशानी तो याद मे होगी घिरते रहे दर्द मे खामोश होकर मुंहज़ुबानी तो बाद मे होगी अल्फाज़ों के गुच्छे समेट रहा हूँ कहानी तो बाद मे होगी -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'  

पुलवामा में शहीद हुए वीर सैनिकों को समर्पित....

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भाग -1 आज बदहवास सी फ़िज़ाएं हो रही है मेरे शहर मे कितनी माएँ रो रही है बड़े जोश से वतन का झंडा लिए जा रहे थे आज उनकी शहादत पर दुनिया रो रही है वो बुज़दिलों के हाथों से मारे गये इस कदर कि सड़क भी अपने को खून से धो रही है इन  जवानों की लाशों मे वतनपरस्ती की खुशबू है जो गद्दारों के सीने को चुभो रही है आज इस कदर आँखे छलछला गयी कि ग़म की नदी मे सबको डुबो रही है मेरी नसों मे गुस्से का उबाल है वो दहशत के दरिंदों को खोज रही है अब नफ़रतों के सौदागरों के लिए मेरी वतन की फ़ौजें तैयार हो रही हैं तेरे धोखे का ए पाकिस्तान माकूल जवाब मिलेगा अभी तो यहाँ पर हवायें लाशें ढो रही हैं हर हिंदुस्तानी सरहद पर जाने को आमादा है हर आँख तेरे खात्मे की बाट जोह रही हैं भाग -2 ओ बुज़दिल और मक्कार पाकिस्तान-------------------------  ये मत समझना  कि  हम चुप बैठ जाएँगे  तेरे सीने पर इतने खंज़र चलाएँगे  कि तू भी अपनी किस्मत को  को सेगा  अपने ही हाथों से अपनी कब्र खोदेगा  ये जवान हमारे हिंद की शान है  इनके खून  का  हर  एक  कतरा देश का सम्

खुशफहमी...

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तेरी यादों के भंवर में कुछ ऐसे उलझे कि ज़िन्दगी के कई मसले सुलझ नहीं पाए बेहतरी के लिए ही कुछ सलाहें दी थी पर  दिमाग के फितूर उसे समझ नहीं पाए कुछ बनने का सपना तो बहुत देखा तूने कुछ करने के वास्ते हड्डियाँ खरच नहीं पाए तय किया था कि मुकाम पाने तक रफ़्तार नहीं थमेगी मेरी नालायकी से हम मंज़िल तक पहुंच नहीं पाए कितने लोग समझदारी का तमगा लिए फिरते हैं मगर बेवकूफों की भीड़ से निकल नहीं पाए ऊपर ऊपर से तो सबकी ख़ुशी का नज़ारा देखता हूँ मगर दिल तक किसी के उतर नहीं पाए पहले परवाज़ की तैयारी तो चिड़िया ने कर ही दी थी बस नए परिंदे ज़हन में हौसला भर नहीं पाए मैं भी क्या करूँ कि आदत हो चुकी है सुस्त रहने की इसीलिए तो ज़िन्दगी में कुछ कर नहीं पाए राजेश बलूनी  'प्रतिबिम्ब'