Thursday, November 28, 2019

तसल्ली


मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी
मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी

लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे
जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी

वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं
हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी

किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले
अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी

तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा
मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी

हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार 
इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी

रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल
तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी

बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी
इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी

सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी
कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी

- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

1 comment:

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...