Friday, January 18, 2013

ग़म-ए-यारी



मेरे ग़मों का कोई भी निशाँ बाकी ना रहा
फिर भी खुशफ़हमी से मेरा मिलना ना हुआ

बहुत मौके दिए वक्त ने मुझे संभलने को
पर इतना गिरा नज़रों से की फिर से उठना ना हुआ

हो चुके थे कई सुराख मेरे इरादों में इस तरह
कि हौसलों से फिर मेरा सामना ना हुआ

मैं अक्सर गुफ़्तुगू करता हूं अपने अकेलेपन से
पर वो कम्बख़्त भी मेरा अपना ना हुआ

मेरे हालात को नागवार गुज़रा मेरा खुश रहना
इतना बेबस हूँ कि मुद्दतों से मुस्कुराना ना हुआ

क्या कहूँ कि आदत हो गयी है मुझे ज़ख़्मों की
इसीलिए चेहरे से दर्द का मिटना ना हुआ

शायद जज़्बातों से अश्क भी जम गये हैं मेरे
तभी तो उनका पलकों से उतरना ना हुआ

मैं अपने दर्द को नज़रअंदाज़ कर रहा था फिर भी
उसका मेरी ज़िंदगी से बिछड़ना ना हुआ

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'




What About Dreams



'Oh' the society has suggested me
just live your life in a normal way,
don't apply the adventurous, competitive
and struggling point of view
hmm, So what to do to live that kind
of life

In these days my daily routine is
just get up late in the morning
take bath and get ready for the office
And doing my daily scheduled office task

haaa! hell there is no any new inventions
no any creativity,.no goal of life 
just spending it like a pig . 
and finish the path with the way
insect crawls and creep


I am failed to indulge in this fake and
imaginary world ,I need a natural and real
gesture of life,,,,,,,but where to find
Always get taunts, abusive languages,
 hatred, demoralization, conspiracy
ohhh! how long i will have to tackle it


I am wandering to clear the dust and trying to deal 
with the distorted mentality of the people 

But I am afraid that it might be possible that
I could be the part of these rotten views and circumstances
so that i don't want to think to be tangled into this 
I become a coward person, because of no humanity over there.

And dreams ha ha! what is this? , I have erased this 
word from my conscience, my mind, my life. my idea,
my intelligence. It doesn't live with me

Please don't ask about dreams

They are just going on the endless path
where I do not exist


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बहरहाल




बेबस है ज़िंदगी का आलम क्या करूं,
किस तरह इसे अपने हालात से रूबरू करूं।

कई चेहरों पर मेरे लिए दुआएं दिखती हैं ,
कैसे उनकी उम्मीदों का बोझ बर्दाश्त करूं।

मेरी तन्हाई भी रूठ जाती है मुझसे आजकल
जो मैं उसकी मौजदगी से इनकार करूँ !

बोझिल होती हैं सांसें जब, कोई जीने को कहता है,
मौत का कब तक मैं इंतजार करूं।

मेरे जज़्बातों में, अब वो ख़ासियत नहीं रही,
जो मैं किसी के मरने पर आंसू बेकार करूं।

सूनी राहें पुकार रही हैं, अपने मुसाफिरों को
मगर मंज़िलों की मिलने की कैसे आस करूं।

जकड़े हुए हैं ख्याल, दिमाग़ के क़ैदखाने में,
अब किस तरह उन्हें बंदिशों से आज़ाद करूँ।

नींद भी गश्त में है ख्वाबों के मगर,
अश्क़ों को कैसे फिर शर्मसार करूं।

ज़ब्त हुई है इंसानियत रक़ीबों के शहर में,
दोस्ती के माहौल को फिर कैसे तैयार करूं।

बहरहाल कोई रंज नहीं है अपने नसीब से,
आख़िर मैं भी ख्वाहिशों को क्यों साथ रखूं।

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Thursday, January 17, 2013

जिक्र


जिंदा है रोशनी अँधेरे पी रहा हूँ
कुछ इस कदर अपने जज़्बात जी रहा हूँ

शौकीन कौन था बिगडैल आदतों का
बारहा लोगों से जिदें सीख रहा हूँ

आमराय बनाना बड़ी मशक्कत का खेल है
कई मसलों पर लोगों से खिंच रहा हूँ

रात  का असर इतना ज्यादा हो चुका है
कि सुबह की किरण को भी भींच रहा  हूँ

बहुत से सवाल है की हर कोई पाक़ साफ़ नहीं है
गनीमत ये है की मैं खुद की नज़र में ठीक रहा हूँ

चाय का प्याला बगल में दबा कर रखा है
अपनी चर्चाओं में सभी को खींच रहा हूँ

समझता हूँ की ताक़तों  का दौर मेरे साथ आये
वर्ना मैं भी तो औरों सा बिक रहा हूँ

बहुत हो चुकी मेरी खुद की खुशामद
बस अपने ज़िक्र में मैं सभी को भूल रहा हूँ

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


मेरे दोस्तों



चलो मिलकर एक नयी दुनिया बनाएँ दोस्तों
गमों और तकलीफ़ों को साथ सुलझाएँ दोस्तों

मुझे खबर है की सभी मसरूफ़ है अपनी ज़िंदगी मे
फिर भी एक दूसरे के लिए वक़्त निकालें दोस्तों

यादों के घर तो हमारे पास हैं ही
अब ज़रा खुशियों के झरोखे बनाएँ दोस्तों

आईने मे अपनी सूरतें बहुत देख चुके हैं
अब एक दूसरे की आँखों को चेहरा दिखाएँ दोस्तों

बहुत साल हो गये  की मैं सही से हंसा नहीं
चलो एक दूसरे की खिल्ली उड़ाएँ दोस्तों

सोचता हूँ वो दिन ही अच्छे थे हमारे
चलो उस दौर मे दोबारा जाएँ दोस्तों

हम सब मिले तो  नयी उम्मीद और नयी सुबह बनी
चलो अब साथ चलकर नया शहर बनाएँ दोस्तों

आज मिलें हैं कल भी मिलेंगे ये  ठान लो तुम सभी
इस वाकये को हमेशा दोहरायें दोस्तों

हँसी, तिठोली, मज़ाक, मस्ती  अनबन और यारी कुछ कम हो चली थी
ज़रा अब इन सिलसिलो आगे बढ़ाएँ दोस्तों

आस है कि हम सब हमेशा खुशी से साथ चलेंगे
इस सोच के साथ ज़िंदगी आगे बढ़ाएँ दोस्तों

राजेश बलूनी 'प्रतिबिंब'

Wednesday, January 9, 2013

मुमकिन

शहर की रोशनी को इकट्ठा किया था
फिर भी मेरा आशियाँ सजा नहीं

तूफान को फिर भी वो सह गया था
पर हवाओं से बिल्कुल भी बचा नहीं

शाम तो चमक रही है रंगों से मगर
रात के मंज़र का पता नहीं

लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा है फिर भी
अकेलेपन की कोई दवा नहीं

बहुत मशक्कत है इस ज़िंदगी के खेल में
जो उलझता है वो निकलता नहीं

जी तो लूंगा मैं इस बेबसी में भी
मगर मेरी सांसों की इसमें रज़ा नहीं

आंसुओं के नमक में जो बात है
हंसी की मिश्री में वो मज़ा नहीं

खुली हवा में घूमते हैं हम सब
पर घुटन से कोई भी निकला नहीं

रहगुज़र की तलाश में भटकते रहे हैं
पर सुकून को कोई भी ढूंढता नहीं

मुमकिन है दुनिया में लोगों से मिलना
मगर खुद से कभी मैं मिला नहीं

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

साहस

निर्भय अभी हो नहीं विकल, 
रख पावं तू अब चलता चल। 

रण छोड़कर है क्यों खड़ा, 
पर्वत हटा जो है अड़ा। 

तज मति तू वक्र सी, 
चल गति कर चक्र सी। 

वाणी को विस्तृत कर दे तू, 
साहस को जीवित कर दे तू। 

है काल का क्या प्रयोजन, 
एक दिन तो जाएगा जीवन। 

फिर क्यों तू भय का घर बना, 
फैला अंधेरा है घना। 

उसको तो प्रज्वलित कर दे तू, 
संयम को अर्जित कर दे तू। 

जब काल आए सामने, 
ना आएगा कोई थामने 

फिर स्वयं का विश्वास कर, 
पीड़ा पे तू अट्टहास कर। 

हैं रिक्त तेरी भुजाएं, 

बल का स्मरण तू करा दे। 
चिंता विसर्जन करा दे, 

किरण के रथ को तू सजा। 
तम के भवन को तू गिरा, 

जब खेतों में कोई हल चले। 
उद्यम का फिर वहां फल मिले, 

सशक्त कर ले ध्वनि को। 
प्रचंड कर ले अग्नि को, 

सहस्रा जीवन कर समर्पण। 
कर दे अब तो घोर गर्जन, 

अन्न्याय को तू कर पराजित। 
सत्य को कर ले तू निर्मित, 

होगा फिर एक नभ नया। 
स्वछन्द पवन से जो बना, 

फिर खुल के जीवन जी ले तू, 
आशा का निर्झर पी ले तू। 

और फिर नहीं होगा ग्रहण, 
जो साहसिक कर ले तू मन 

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...