ग़म-ए-यारी
मेरे ग़मों का कोई भी निशाँ बाकी ना रहा फिर भी खुशफ़हमी से मेरा मिलना ना हुआ बहुत मौके दिए वक्त ने मुझे संभलने को पर इतना गिरा नज़रों से की फिर से उठना ना हुआ हो चुके थे कई सुराख मेरे इरादों में इस तरह कि हौसलों से फिर मेरा सामना ना हुआ मैं अक्सर गुफ़्तुगू करता हूं अपने अकेलेपन से पर वो कम्बख़्त भी मेरा अपना ना हुआ मेरे हालात को नागवार गुज़रा मेरा खुश रहना इतना बेबस हूँ कि मुद्दतों से मुस्कुराना ना हुआ क्या कहूँ कि आदत हो गयी है मुझे ज़ख़्मों की इसीलिए चेहरे से दर्द का मिटना ना हुआ शायद जज़्बातों से अश्क भी जम गये हैं मेरे तभी तो उनका पलकों से उतरना ना हुआ मैं अपने दर्द को नज़रअंदाज़ कर रहा था फिर भी उसका मेरी ज़िंदगी से बिछड़ना ना हुआ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'