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Showing posts from January, 2013

ग़म-ए-यारी

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मेरे ग़मों का कोई भी निशाँ बाकी ना रहा फिर भी खुशफ़हमी से मेरा मिलना ना हुआ बहुत मौके दिए वक्त ने मुझे संभलने को पर इतना गिरा नज़रों से की फिर से उठना ना हुआ हो चुके थे कई सुराख मेरे इरादों में इस तरह कि हौसलों से फिर मेरा सामना ना हुआ मैं अक्सर गुफ़्तुगू करता हूं अपने अकेलेपन से पर वो कम्बख़्त भी मेरा अपना ना हुआ मेरे हालात को नागवार गुज़रा मेरा खुश रहना इतना बेबस हूँ कि मुद्दतों से मुस्कुराना ना हुआ क्या कहूँ कि आदत हो गयी है मुझे ज़ख़्मों की इसीलिए चेहरे से दर्द का मिटना ना हुआ शायद जज़्बातों से अश्क भी जम गये हैं मेरे तभी तो उनका पलकों से उतरना ना हुआ मैं अपने दर्द को नज़रअंदाज़ कर रहा था फिर भी उसका मेरी ज़िंदगी से बिछड़ना ना हुआ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

What About Dreams

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'Oh' the society has suggested me just live your life in a normal way, don't apply the adventurous, competitive and struggling point of view hmm, So what to do to live that kind of life In these days my daily routine is just get up late in the morning take bath and get ready for the office And doing my daily scheduled office task haaa! hell there is no any new inventions no any creativity,.no goal of life  just spending it like a pig .  and finish the path with the way insect crawls and creep I am failed to indulge in this fake and imaginary world ,I need a natural and real gesture of life,,,,,,,but where to find Always get taunts, abusive languages,  hatred, demoralization, conspiracy ohhh! how long i will have to tackle it I am wandering to clear the dust and trying to deal  with the distorted mentality of the people  But I am afraid that it might be possible that I could be the part of these rotten views and circumstances so that i don

बहरहाल

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बेबस है ज़िंदगी का आलम क्या करूं, किस तरह इसे अपने हालात से रूबरू करूं। कई चेहरों पर मेरे लिए दुआएं दिखती हैं , कैसे उनकी उम्मीदों का बोझ बर्दाश्त करूं। मेरी तन्हाई भी रूठ जाती है मुझसे आजकल जो मैं उसकी मौजदगी से इनकार करूँ ! बोझिल होती हैं सांसें जब, कोई जीने को कहता है, मौत का कब तक मैं इंतजार करूं। मेरे जज़्बातों में, अब वो ख़ासियत नहीं रही, जो मैं किसी के मरने पर आंसू बेकार करूं। सूनी राहें पुकार रही हैं, अपने मुसाफिरों को मगर मंज़िलों की मिलने की कैसे आस करूं। जकड़े हुए हैं ख्याल, दिमाग़ के क़ैदखाने में, अब किस तरह उन्हें बंदिशों से आज़ाद करूँ। नींद भी गश्त में है ख्वाबों के मगर, अश्क़ों को कैसे फिर शर्मसार करूं। ज़ब्त हुई है इंसानियत रक़ीबों के शहर में, दोस्ती के माहौल को फिर कैसे तैयार करूं। बहरहाल कोई रंज नहीं है अपने नसीब से, आख़िर मैं भी ख्वाहिशों को क्यों साथ रखूं। राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

जिक्र

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जिंदा है रोशनी अँधेरे पी रहा हूँ कुछ इस कदर अपने जज़्बात जी रहा हूँ शौकीन कौन था बिगडैल आदतों का बारहा लोगों से जिदें सीख रहा हूँ आमराय बनाना बड़ी मशक्कत का खेल है कई मसलों पर लोगों से खिंच रहा हूँ रात  का असर इतना ज्यादा हो चुका है कि सुबह की किरण को भी भींच रहा  हूँ बहुत से सवाल है की हर कोई पाक़ साफ़ नहीं है गनीमत ये है की मैं खुद की नज़र में ठीक रहा हूँ चाय का प्याला बगल में दबा कर रखा है अपनी चर्चाओं में सभी को खींच रहा हूँ समझता हूँ की ताक़तों  का दौर मेरे साथ आये वर्ना मैं भी तो औरों सा बिक रहा हूँ बहुत हो चुकी मेरी खुद की खुशामद बस अपने ज़िक्र में मैं सभी को भूल रहा हूँ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

मेरे दोस्तों

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चलो मिलकर एक नयी दुनिया बनाएँ दोस्तों गमों और तकलीफ़ों को साथ सुलझाएँ दोस्तों मुझे खबर है की सभी मसरूफ़ है अपनी ज़िंदगी मे फिर भी एक दूसरे के लिए वक़्त निकालें दोस्तों यादों के घर तो हमारे पास हैं ही अब ज़रा खुशियों के झरोखे बनाएँ दोस्तों आईने मे अपनी सूरतें बहुत देख चुके हैं अब एक दूसरे की आँखों को चेहरा दिखाएँ दोस्तों बहुत साल हो गये  की मैं सही से हंसा नहीं चलो एक दूसरे की खिल्ली उड़ाएँ दोस्तों सोचता हूँ वो दिन ही अच्छे थे हमारे चलो उस दौर मे दोबारा जाएँ दोस्तों हम सब मिले तो  नयी उम्मीद और नयी सुबह बनी चलो अब साथ चलकर नया शहर बनाएँ दोस्तों आज मिलें हैं कल भी मिलेंगे ये  ठान लो तुम सभी इस वाकये को हमेशा दोहरायें दोस्तों हँसी, तिठोली, मज़ाक, मस्ती  अनबन और यारी कुछ कम हो चली थी ज़रा अब इन सिलसिलो आगे बढ़ाएँ दोस्तों आस है कि हम सब हमेशा खुशी से साथ चलेंगे इस सोच के साथ ज़िंदगी आगे बढ़ाएँ दोस्तों राजेश बलूनी 'प्रतिबिंब'

मुमकिन

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शहर की रोशनी को इकट्ठा किया था फिर भी मेरा आशियाँ सजा नहीं तूफान को फिर भी वो सह गया था पर हवाओं से बिल्कुल भी बचा नहीं शाम तो चमक रही है रंगों से मगर रात के मंज़र का पता नहीं लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा है फिर भी अकेलेपन की कोई दवा नहीं बहुत मशक्कत है इस ज़िंदगी के खेल में जो उलझता है वो निकलता नहीं जी तो लूंगा मैं इस बेबसी में भी मगर मेरी सांसों की इसमें रज़ा नहीं आंसुओं के नमक में जो बात है हंसी की मिश्री में वो मज़ा नहीं खुली हवा में घूमते हैं हम सब पर घुटन से कोई भी निकला नहीं रहगुज़र की तलाश में भटकते रहे हैं पर सुकून को कोई भी ढूंढता नहीं मुमकिन है दुनिया में लोगों से मिलना मगर खुद से कभी मैं मिला नहीं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

साहस

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निर्भय अभी हो नहीं विकल,  रख पावं तू अब चलता चल।  रण छोड़कर है क्यों खड़ा,  पर्वत हटा जो है अड़ा।  तज मति तू वक्र सी,  चल गति कर चक्र सी।  वाणी को विस्तृत कर दे तू,  साहस को जीवित कर दे तू।  है काल का क्या प्रयोजन,  एक दिन तो जाएगा जीवन।  फिर क्यों तू भय का घर बना,  फैला अंधेरा है घना।  उसको तो प्रज्वलित कर दे तू,  संयम को अर्जित कर दे तू।  जब काल आए सामने,  ना आएगा कोई थामने  फिर स्वयं का विश्वास कर,  पीड़ा पे तू अट्टहास कर।  हैं रिक्त तेरी भुजाएं,  बल का स्मरण तू करा दे।  चिंता विसर्जन करा दे,  किरण के रथ को तू सजा।  तम के भवन को तू गिरा,  जब खेतों में कोई हल चले।  उद्यम का फिर वहां फल मिले,  सशक्त कर ले ध्वनि को।  प्रचंड कर ले अग्नि को,  सहस्रा जीवन कर समर्पण।  कर दे अब तो घोर गर्जन,  अन्न्याय को तू कर पराजित।  सत्य को कर ले तू निर्मित,  होगा फिर एक नभ नया।  स्वछन्द पवन से जो बना,  फिर खुल के जीवन जी ले तू,  आशा का निर्झर पी ले तू।  और फिर नहीं होगा ग्रहण,  जो साहसिक कर ले त