Wednesday, January 9, 2013

मुमकिन

शहर की रोशनी को इकट्ठा किया था
फिर भी मेरा आशियाँ सजा नहीं

तूफान को फिर भी वो सह गया था
पर हवाओं से बिल्कुल भी बचा नहीं

शाम तो चमक रही है रंगों से मगर
रात के मंज़र का पता नहीं

लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा है फिर भी
अकेलेपन की कोई दवा नहीं

बहुत मशक्कत है इस ज़िंदगी के खेल में
जो उलझता है वो निकलता नहीं

जी तो लूंगा मैं इस बेबसी में भी
मगर मेरी सांसों की इसमें रज़ा नहीं

आंसुओं के नमक में जो बात है
हंसी की मिश्री में वो मज़ा नहीं

खुली हवा में घूमते हैं हम सब
पर घुटन से कोई भी निकला नहीं

रहगुज़र की तलाश में भटकते रहे हैं
पर सुकून को कोई भी ढूंढता नहीं

मुमकिन है दुनिया में लोगों से मिलना
मगर खुद से कभी मैं मिला नहीं

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

1 comment:

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...