Thursday, January 17, 2013

जिक्र


जिंदा है रोशनी अँधेरे पी रहा हूँ
कुछ इस कदर अपने जज़्बात जी रहा हूँ

शौकीन कौन था बिगडैल आदतों का
बारहा लोगों से जिदें सीख रहा हूँ

आमराय बनाना बड़ी मशक्कत का खेल है
कई मसलों पर लोगों से खिंच रहा हूँ

रात  का असर इतना ज्यादा हो चुका है
कि सुबह की किरण को भी भींच रहा  हूँ

बहुत से सवाल है की हर कोई पाक़ साफ़ नहीं है
गनीमत ये है की मैं खुद की नज़र में ठीक रहा हूँ

चाय का प्याला बगल में दबा कर रखा है
अपनी चर्चाओं में सभी को खींच रहा हूँ

समझता हूँ की ताक़तों  का दौर मेरे साथ आये
वर्ना मैं भी तो औरों सा बिक रहा हूँ

बहुत हो चुकी मेरी खुद की खुशामद
बस अपने ज़िक्र में मैं सभी को भूल रहा हूँ

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


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