साहस
निर्भय अभी हो नहीं विकल,
रख पावं तू अब चलता चल।
पर्वत हटा जो है अड़ा।
तज मति तू वक्र सी,
चल गति कर चक्र सी।
वाणी को विस्तृत कर दे तू,
साहस को जीवित कर दे तू।
है काल का क्या प्रयोजन,
एक दिन तो जाएगा जीवन।
फिर क्यों तू भय का घर बना,
फैला अंधेरा है घना।
उसको तो प्रज्वलित कर दे तू,
संयम को अर्जित कर दे तू।
जब काल आए सामने,
ना आएगा कोई थामने
फिर स्वयं का विश्वास कर,
पीड़ा पे तू अट्टहास कर।
हैं रिक्त तेरी भुजाएं,
बल का स्मरण तू करा दे।
चिंता विसर्जन करा दे,
किरण के रथ को तू सजा।
तम के भवन को तू गिरा,
जब खेतों में कोई हल चले।
उद्यम का फिर वहां फल मिले,
सशक्त कर ले ध्वनि को।
प्रचंड कर ले अग्नि को,
सहस्रा जीवन कर समर्पण।
कर दे अब तो घोर गर्जन,
अन्न्याय को तू कर पराजित।
सत्य को कर ले तू निर्मित,
होगा फिर एक नभ नया।
स्वछन्द पवन से जो बना,
फिर खुल के जीवन जी ले तू,
आशा का निर्झर पी ले तू।
और फिर नहीं होगा ग्रहण,
जो साहसिक कर ले तू मन
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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