बहरहाल
बेबस है ज़िंदगी का आलम क्या करूं,
किस तरह इसे अपने हालात से रूबरू करूं।
कई चेहरों पर मेरे लिए दुआएं दिखती हैं ,
कैसे उनकी उम्मीदों का बोझ बर्दाश्त करूं।
मेरी तन्हाई भी रूठ जाती है मुझसे आजकल
जो मैं उसकी मौजदगी से इनकार करूँ !
बोझिल होती हैं सांसें जब, कोई जीने को कहता है,
मौत का कब तक मैं इंतजार करूं।
जो मैं किसी के मरने पर आंसू बेकार करूं।
सूनी राहें पुकार रही हैं, अपने मुसाफिरों को
मगर मंज़िलों की मिलने की कैसे आस करूं।
जकड़े हुए हैं ख्याल, दिमाग़ के क़ैदखाने में,
अब किस तरह उन्हें बंदिशों से आज़ाद करूँ।
नींद भी गश्त में है ख्वाबों के मगर,
अश्क़ों को कैसे फिर शर्मसार करूं।
ज़ब्त हुई है इंसानियत रक़ीबों के शहर में,
दोस्ती के माहौल को फिर कैसे तैयार करूं।
बहरहाल कोई रंज नहीं है अपने नसीब से,
आख़िर मैं भी ख्वाहिशों को क्यों साथ रखूं।
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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